ये लो आज स्कूटर फिर खराब हो गया। सोचा टेंपो पकड़ कर चला जाये मेन रोड। टेंपो मिला, शायद किन्ही कारणों से ट्रैफिक की आवाजाही कम थी, इसलिए टेंपो में भी भीड़ थी। टेंपो था कि ठसाठस भरा था। ऊपर से एक मोटे भाई साहब पूरा फैलकर बैठे थे। सांस तो भैया देखकर ही ऊपर नीचे हो रही थी। दिल धकाधक किये जा रहा था। हमने कहा-जाना जरूरी है, लेकिन बैठेंगे कहां। टेंपोवाले ने कहा-भाई साहब बैठ जाइये, चलते-चलते एडजस्ट हो जायेगी। मरता क्या न करता, बैठ गया और ये लोग एडजस्ट हो गया। वाह रे भगवान, क्या अंदाज है हमारा? रोड पर दो-तीन हिचकोले में एकदम एडजस्ट हो जाते हैं। कबाड़ी हो चुके कार के नट-बोल्ट की तरह अपने आपको को शरीर के हिसाब से फिट कर लेते हैं, लटक के, झटक के या यूं कहें पैर सिकोड़ के। ऐसी यात्रा के बाद वो कमर का मुड़ना और पैरों में ददॆ होना, न जानें कितनी..... कविताएं लिख डाली गयी होंगी। अब इंडिया वह भी झारखंड में रोड की ऊंचाई-निचाई सबकुछ एडजस्ट कर देती है।
आपका क्या हाल है, कहीं आप भी एडजस्ट करते हुए तो नहीं चलते। खैर आज गाड़ी का पंक्चर शाम में ठीक कर लिया। कल से स्कूटर पर निकलुंगा पूरी तरह अकड़ कर और देखूंगा आम पब्लिक को एडजस्ट करके चलते हुए। वैसे ये कब तक चलेगा, कोई तो बता दे।
Saturday, January 3, 2009
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1 comment:
यह एडजस्ट करने की संस्कृति बहुत प्राचीन है. आप कल से भले ही स्कूटर पर सीना तान कर जाएँ, एडजस्ट तो कहीं न कहीं करते ही हैं आप. ऐसा ही हाल सबका है. बिना एडजस्ट किए कोई इस देश में एक कदम आगे नहीं चल सकता. प्रथम नागरिक से अन्तिम नागरिक तक सब एडजस्ट करते हैं. एडजस्ट किया है, कर रहे हैं, करते रहेंगे.
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