बरियातू स्थित हमारा मुहल्ला भी अब पहले जैसा नहीं रहा. आज जब बाहर
बारिश हो रही है और हम रूम में बैठकर बाहर गिरते बूंदों को टटोलने की कोशिश
कर रहे हैं, तब उन बीते दिनों में सड़कों
पर पैदल चलते हुए भींगने का दौर भी याद है. उन दिनों कालोनी के गोलचक्कर
से लेकर स्कूल तक ही अपनी दुनिया सिमटी हुई थी. गोलचक्कर से एक किमी की
दूरी पर स्थित मंदिर तक चक्कर लगाकर ही खुद को संतुष्ट कर लिया करते थे.
यूं कहें कि हम अपने बनाए कम्फर्ट जोन में काफी खुश थे. उन दिनों जो भी
फिरायालाल जाता, वह हमें यही बताता कि रांची गए थे, यानी रांची मायने
फिरायालाल. बरियातू तो बाहरी इलाके जैसा था. लेकिन अब रांची फैल गई है. बदल
गई है. हमारा मुहल्ला भी अब दूर-दूर तक फैल गया है.
वैसे भी बदलना तो हमारी नियति में है. हम हर रोज बदलते हैं. विचार से. दिल से. नजरिए से. बचपन भी हर क्लास के लेवल पर बदलता रहता है. अचानक से दुनिया बड़ी लगने लगती है. काफी बड़ी. रांची के बरियातू में स्थित तीन रूम के छोटे से फ्लैट में हम चार भाई-बहनों की दुनिया दौड़ती रहती थी. उन दिनों स्कूल के हेडमास्टर साहब थोड़े कड़क किस्म के थे. उन्हें जब सजा देनी होती थी, तो आंख दिखाकर काम तमाम कर देते थे. सब बताया करते थे कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे. उनकी प्रतिष्ठा भी काफी थी. हमेशा खादी पहनना उनकी आदत में शुमार था. घोर गांधीवादी. किसकी मजाल थी कि कोई चूं तक बोले. याद है कि ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति बने थे. हमें परीक्षा में नए राष्ट्रपति जी के बारे में सवाल भी पूछा गया था. दुनियादारी से दूर हम नन्हे बच्चे पद और उसकी महत्ता से अनजान थे. हम नए राष्ट्रपति महोदय का नाम नहीं जानते थे. तब हमें हमारी टीचर्स ने खुद आकर सवाल के उत्तर लिखाए थे. उस समय प्रधानमंत्री के नाम पर इंदिरा जी का नाम जुबान पर रटा था.
अब अगर क्लास रूम की बात करें, तो अपने मिडिल स्कूल में मैं बैक बेंचर था. न ज्यादा दोस्ती और न ज्यादा दुश्मनी. स्कूल के पीछे के मैदान में लंच के वक्त लड़कों का हुजूम खेल खेलने में मगन रहता था. उस खेल में सबसे हिट था, तो बम पाट. जिसमें रबड़ की गेंद से एक-दूसरे को निशाना बनाना पड़ता था. मुझे उसमें मार ही ज्यादा पड़ती थी. लेकिन फिर भी पार्टिसिपेट जरूर करता था.
क्लास फोर में था. एक दिन मेरे बगलवाले बेंच पर एक लड़का बैठा मिला. नाम पूछा, बताया संजय बोस. पेंटिंग में महारत हासिल थी उस लड़के को. उसकी पहली पेंटिंग टार्जन की देखी. सुंदर लगा था उस वक्त. हम उतनी सुंदर चित्रकारी नहीं कर पाते थे. उसे देखकर खुद को कमतर पाता था. कुछ सीखने की गुंजाइश से उसे दोस्त बना बैठा. बाद में बड़े होने पर संजय ने फोटोग्राफी में भी ऐसी महारत हासिल कर ली कि आज वह कई लोगों के लिए गुरु समान हो गया है. उन दिनों स्कूल से आते वक्त उसके घर पर ठहरने की जरूरत महसूस होती थी. अमरूद जो लेना होता था. स्कूल के लड़के भी अमरूद पाने के चक्कर में संजय के दोस्त बन चले थे. लेकिन मैं और मेरा भाई उसमें थोड़ा आगे रहे. हमने उससे पक्की दोस्ती कर ली. फिर शाम में शुरू हुआ संजय के घर पर गपशप करने का दौर. जहां होते थे हम तीन जन मैं, मेरा भाई और संजय. साथ में होती थी डेक से उठती किशोर की आवाज. संजय के यहां गुजरी शामों में मैंने जगजीत सिंह, किशोर, लता, अभिजीत सबके गीत झूमकर सुने.
हमारी दुनिया कुछ दिनों के लिए बस संजय के घर पर ही शाम के वक्त गुजरती रही. शतरंज की बाजी भी खूब चलती. जिसमें ज्यादातर समय जीतने की जिद लिए संजय के भाई साहब टिके रह जाते थे. चाय और गप्पबाजी के आगे बाहर की दुनिया फीकी नजर आती थी. हमारी जिंदगी स्वकेंद्रित हो चली थी या यूं कहें हम खुलकर जी रहे थे और खुद में खुश थे. बेफिक्र, बिना चिंता के. उस वक्त यह नहीं जानते थे कि बाद की दुनिया कितनी कठोर, प्रोफेशनल और इमोशनलेस हो जाएगी. जिसमें सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट का ही मामला चलता है.
वैसे भी बदलना तो हमारी नियति में है. हम हर रोज बदलते हैं. विचार से. दिल से. नजरिए से. बचपन भी हर क्लास के लेवल पर बदलता रहता है. अचानक से दुनिया बड़ी लगने लगती है. काफी बड़ी. रांची के बरियातू में स्थित तीन रूम के छोटे से फ्लैट में हम चार भाई-बहनों की दुनिया दौड़ती रहती थी. उन दिनों स्कूल के हेडमास्टर साहब थोड़े कड़क किस्म के थे. उन्हें जब सजा देनी होती थी, तो आंख दिखाकर काम तमाम कर देते थे. सब बताया करते थे कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे. उनकी प्रतिष्ठा भी काफी थी. हमेशा खादी पहनना उनकी आदत में शुमार था. घोर गांधीवादी. किसकी मजाल थी कि कोई चूं तक बोले. याद है कि ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति बने थे. हमें परीक्षा में नए राष्ट्रपति जी के बारे में सवाल भी पूछा गया था. दुनियादारी से दूर हम नन्हे बच्चे पद और उसकी महत्ता से अनजान थे. हम नए राष्ट्रपति महोदय का नाम नहीं जानते थे. तब हमें हमारी टीचर्स ने खुद आकर सवाल के उत्तर लिखाए थे. उस समय प्रधानमंत्री के नाम पर इंदिरा जी का नाम जुबान पर रटा था.
अब अगर क्लास रूम की बात करें, तो अपने मिडिल स्कूल में मैं बैक बेंचर था. न ज्यादा दोस्ती और न ज्यादा दुश्मनी. स्कूल के पीछे के मैदान में लंच के वक्त लड़कों का हुजूम खेल खेलने में मगन रहता था. उस खेल में सबसे हिट था, तो बम पाट. जिसमें रबड़ की गेंद से एक-दूसरे को निशाना बनाना पड़ता था. मुझे उसमें मार ही ज्यादा पड़ती थी. लेकिन फिर भी पार्टिसिपेट जरूर करता था.
क्लास फोर में था. एक दिन मेरे बगलवाले बेंच पर एक लड़का बैठा मिला. नाम पूछा, बताया संजय बोस. पेंटिंग में महारत हासिल थी उस लड़के को. उसकी पहली पेंटिंग टार्जन की देखी. सुंदर लगा था उस वक्त. हम उतनी सुंदर चित्रकारी नहीं कर पाते थे. उसे देखकर खुद को कमतर पाता था. कुछ सीखने की गुंजाइश से उसे दोस्त बना बैठा. बाद में बड़े होने पर संजय ने फोटोग्राफी में भी ऐसी महारत हासिल कर ली कि आज वह कई लोगों के लिए गुरु समान हो गया है. उन दिनों स्कूल से आते वक्त उसके घर पर ठहरने की जरूरत महसूस होती थी. अमरूद जो लेना होता था. स्कूल के लड़के भी अमरूद पाने के चक्कर में संजय के दोस्त बन चले थे. लेकिन मैं और मेरा भाई उसमें थोड़ा आगे रहे. हमने उससे पक्की दोस्ती कर ली. फिर शाम में शुरू हुआ संजय के घर पर गपशप करने का दौर. जहां होते थे हम तीन जन मैं, मेरा भाई और संजय. साथ में होती थी डेक से उठती किशोर की आवाज. संजय के यहां गुजरी शामों में मैंने जगजीत सिंह, किशोर, लता, अभिजीत सबके गीत झूमकर सुने.
हमारी दुनिया कुछ दिनों के लिए बस संजय के घर पर ही शाम के वक्त गुजरती रही. शतरंज की बाजी भी खूब चलती. जिसमें ज्यादातर समय जीतने की जिद लिए संजय के भाई साहब टिके रह जाते थे. चाय और गप्पबाजी के आगे बाहर की दुनिया फीकी नजर आती थी. हमारी जिंदगी स्वकेंद्रित हो चली थी या यूं कहें हम खुलकर जी रहे थे और खुद में खुश थे. बेफिक्र, बिना चिंता के. उस वक्त यह नहीं जानते थे कि बाद की दुनिया कितनी कठोर, प्रोफेशनल और इमोशनलेस हो जाएगी. जिसमें सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट का ही मामला चलता है.