मेरे आसपास के ज्यादातर लोग शीला, मुन्नी, डीके बोस जैसे नाम के इस्तेमाल पर लगातार नाराज होते जा रहे है. कारण और कुछ नहीं, फिल्मों में इन नामों के लगातार गलत इस्तेमाल पर हो रहा है. यहां तक कि डेल्ही बेली में न जाने कैसे डीके बोस को गाली से जोड़ दिया गया है. स्टोरी की क्या थीम है. उस फिल्म का क्या मैसेज है या कोई उस फिल्म में कैसे और किस प्रकार की प्रतिक्रिया दे रहा है, को जानने के पहले ही डीके बोस के नाम पर बवाल इस कदर मचा है कि इस बारे में बात करना भी गुनाह है.
आमिर इसके पहले सोशल इश्यूज पर कई फिल्में बनाकर शोहरत बटोर चुके हैं, लेकिन डेल्ही बेल्ही में शायद उनके भांजे इमरान काम कर रहे हैं, इसलिए उन्हें अपनी क्वालिटी से समझौता करना पड़ा. हमारी गाली की लिस्ट में कमीना, हरामी तक कहने की एक तरह की छूट मिली रहती है, लेकिन उससे ज्यादा कहने पर प्रतिष्ठा की लड़ाई शुरू हो जाती है. सारे सवालों से अलग, ये सवाल कोई क्यों नहीं पूछता है कि सेंसर बोर्ड में जो बड़े - बड़े नाम वाले लोग बैठे रहते हैं, वो इन नामों को बेइज्जत करनेवाली फिल्मों को ओके कैसे करते हैं. बहस इस पर होनी चाहिए कि सिस्टम की निगहबानी के लिए जो ऊपर एक संस्था बनी है या जो मिनिस्ट्री है, वो क्यों इस मसले पर चुप्पी साध लती है. साथ ही कैसे इस तरह की फिल्मों को अनुमति देती है.
शीला, मुन्नी, पप्पू और डीके बोस के बाद कहीं कोई और नाम मजाक का विषय न बने, इस पर ध्यान देना जरूरी है. गाली वैसे भी भड़ास मिटाने का एक जरिया है. लोगों में जब बर्दाश्त करने की क्षमता खत्म हो जाती है, तो मुंह पर गाली आ जाती है. फिजिकल स्ट्रेंथ के विकल्प के तौर पर लोग दूसरों को आहत करने के लिए गाली का इस्तेमाल करते हैं. मैंने शेखर कपूर के बैंडिट क्वीन की फिल्म में जो गालियों की बौछार पहली बार सुनी, उसके बाद से उस फिल्म को देखने की हिम्मत नहीं कर पाया.
यहां यह माना जा सकता है कि उस फिल्म में एक सामाजिक व्यवस्था को प्रदर्शित करते हुए गाली के इस्तेमाल को परमिट किया गया था.लेकिन डेल्ही बेली यहां शीला, मुन्नी वाली फिल्मों को सामाजिक व्यवस्था से कोई मतलब नहीं है. इन्हें सीधे तौर पर मुनाफा और लाभ के लिए बनाया गया है. ऐसे में ऊपर में बैठे बास लोग बासी होते जा रहे इस पूरी कवायद को रोकने के लिए पहल करें, जरूरी है.वैसे भी फिल्म को हिट कराने के लिए जिस इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया गया है, उसका इस्तेमाल अगर समय रहते और बेहतर चीजों की पेशकश में किया जाता, तो बात ही कुछ और होती.लोग तो बहस में यहां तक कहते हैं कि गाली का इस्तेमाल बिंदास अंदाज वाले लोग करते हैं. लेकिन ऐसा बिंदास होने का क्या फायदा कि पूरी दुनिया में अपने समाज का नंगापन उतर जाए. वैसे हमाम में सब नंगे रहते हैं, लेकिन यूं ही खुलेआम कपड़े खोलने की बात करना एक तरह का सनकीपन या सस्ती लोकप्रियता पाने का एक हथियार ही है.
सबसे असल बात ये है कि तमाम तरह के फिल्मकारों को समाज या किसी व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता है, वो बाजार के हिसाब से फिल्म या सीरियल बनाते हैं और फिर उसे भूल जाते हैं. पूंजीवादी व्यवस्था का ही दोष है कि आज पुरानी फिल्मों की रीमेक बन रही है. आज की फिल्मों का २० साल बाद रीमेक शायद ही बने. वैसे भी गाली वहीं से शुरू होती है, जहां से आत्मा की मौत हो जाती है. ऐसे में आमिर अब तक जैसे तर्क के सहारे पिक्चर बनाते आए हैं, उसमें वो डेल्ही बेली को हिट कराने के लिए इस कदर डीके बोस के इस्तेमाल और बहस में कूद पड़ें, तो जाहिर है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री अब एक बेहतर फिल्मकार के गिरावट को देखने के लिए बाध्य होगी. क्योंकि ये गिरावट थोड़ी वैचारिक स्तर लिये हुए होगी.वैसे भी सामाजिक मुद्दों को पकड़ कर चलनेवाले कम ही फिल्मकार बचे हैं.
Saturday, July 9, 2011
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गांव की कहानी, मनोरंजन जी की जुबानी
अमर उजाला में लेख..
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5 comments:
बात में दम है।
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TOP HINDI BLOGS !
समाज के बहुत सत्य उजागर करने का बीड़ा उठा लिया है फिल्मों ने, मनोरंजन भी हो जायेगा।
आरजू चाँद सी निखर, जिन्दगी रौशनी से भर जाए,
बारिशें हो वहाँ वे खुशियों की, जिस तरफ आपकी नजर जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आरजू चाँद सी निखर,
जिन्दगी रौशनी से भर जाए,
बारिशें हो वहाँ वे खुशियों की,
जिस तरफ आपकी नजर जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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Ladylike Post. This post helped me in my school assignment. Thanks Alot
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