मेरा बरामदा, खुला हुआ.हर कोना कुछ-कुछ यादों का
टच लिए हुए. दिमाग हर कोने से जुड़े किस्से को करता है याद. याद आई एक घटना. एक
नन्हीं सी जान की. मिली थी सीढ़ियों पर तड़पते हुए. ऊपर बरामदे के पास लगे मीटर
में बनाए गए घोंसले से गिर गई थी. नन्हीं गोरैया को देखकर उस दिन दिल पिघल उठा्
था. हाथों से उठाया. चुपचाप एक किनारे रख दिया. सांस चल रही थी. पानी पिलाने की
कोशिश की, लेकिन उसने नहीं पी. मैं भी कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में चुपचाप एकटक
देखता रह गया था. वक्त बीत चला है. आज २० सालों के बाद उसी जगह फिर नजरें जाती
हैं. लेकिन कुछ नहीं दिखता, न गोरैया. न घोंसला, अपनी नन्ही गोरैया जा चुकी है.
कहीं दूर. मेरे आशियाने की दीवारों और घर के झरोखों में अब उसका घर नहीं बनता.
तिनका-तिनका जोड़कर घोंसला बनाने की उसकी कवायद अब नहीं दिखती. मेरी दोनों बेटियां
उन पलों को नहीं देख पा रही हैं, जिन्हें देखकर हम बड़े हुए. खिड़की के पास बगल
में आकर गोरैयों के झुंड अब डिस्टर्ब नहीं करते. पंखें की आवाज आती है, लेकिन
चहचहाहट नहीं. याद आता है कि दिवाली के समय जब घर की सफाई होती थी, तो ऊंचे रैक के
कोने में घोंसलों का ढेर पड़ा मिलता था. जिसमें चंद नन्हीं जानें जरूर पड़ी मिल
जाती थी. हम उन्हें कहीं कोने में संभालकर रख देते थे. तब उनकी मां उन्हें खोजती
हुईं आती और फिर वहीं रैन बसेरा बनाने का सिलसिला चल निकलता. आज गोरैया दिवस पर ये
सब बातें कहते हुए थोड़ा सा मन बुझा-बुझा सा लग रहा है. मोबाइल वाले हो गए. लेकिन
गोरैया दूर हो गई. गांव की गलियों में अब भी दिखती हैं. दूर-दूर तक फैले मैदानों
के पास वाले घरों में आज भी फुदकती हैं. लेकिन शहर से ये दूर हो गई हैं. हम शहरी
लोग ज्यादा काबिल जरूर हुए हैं, लेकिन हमने अपनी चहचहाट खो दी है. नन्हीं गोरैयों
का फुदकना अब लग्जरी में शामिल हो गया है.
एक कविता....
ओ री गोरैया आना पास
मेरा दिल है थोड़ा उदास
वो तु्म्हारा फुदकना, चहचहाना
तुरंत उड़कर इधर-उधर जाना
सबकुछ भूल गया मैं
दिखती हो तुम दूर मैदानों में
सन्नाटा पसरा है हमारे शहरी आशियानों में
कुछ तो कभी होगा खास
जब तुम आओगी हमारे पास
ओ री गोरैया आना पास
मेरा दिल है थोड़ा उदास
2 comments:
बचपन की उन्मुक्त दोपहरियों से जुड़ी है, गौरया की यादें।
अब नहीं दिखतीं गौरेयां
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