Wednesday, September 3, 2008

सिंगुर में सपनों को नहीं टूटने दें

आदमी सपने देखता है समृद्धि का,लेकिन कुछ लोग इन सपनों को अपनी जिद की वजह से पूरा नहीं होते देखना चाहते हैं। शायद पश्चिम बंगाल में ममता और उनकी पारटी का यही रवैया है। जब सारा देश छोटी कार नैनो के आने का इंतजार कर रहा है। उसके लिए उनके मन में एक नया उत्साह है और प. बंगाल में सिंगुर जैसी जगह पर टाटा द्वारा लगाये गये प्लांट में कार उत्पादन शुरू होने का काम होने जा रहा था, तब ममता के नकारात्मक रुख ने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी है कि टाटा प्लांट को दूसरी जगह राज्य से बाहर ले जाने पर विचार कर रहा है। बंगाल ने देश की आजादी के दौरान पूरे देश को रौशनी और नयी राह दिखायी थी। क्रांतिकारी विचारधाराओं का सूत्रपात भी यहीं से हुआ। पर समय के चक्र में इस आंदोलन और क्रांति के स्वरूप की मौकापरस्तों ने गलत व्याख्या कर ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कीं कि राज्य में उद्योग धंधे बंद होते चले गये।
आज राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर शासक दल के लोग संभावनाओं को तलाशते हुए औद्योगिक घरानों को निवेश का निमंत्रण दे रहे हैं। यहां यह माना कि ममता का आंदोलन जमीन के लिए है। पर शायद वह यह भूल रही हैं कि जिस जमीन के लिए उनका यह आंदोलन चल रहा है, उसी जमीन पर खड़े हो रहे प्लांट से जितने अवसर, नौकरी और माहौल का निमाॆण होगा, वह सिंगुर और पं बंगाल राज्य की पूरी छवि को दुनिया में बदल कर रख देगा। टाटा पूरे देश और दुनिया में अपने बेस्ट मैनेजमेंट और सेक्योर माहौल के लिए जाना जाता है। यहां झारखंड में जमशेदपुर सिफॆ और सिफॆ टाटा की देन है। हमें गवॆ है टाटा की उपलब्धियों पर।



यहां एक सवाल खड़ा होता है कि ममता ने आंदोलन की गति भी उस समय तेज कर दी, जब प्रोजेक्ट नैनो अपने अंतिम चरण में है। जिन सवालों को लेकर आंदोलन किया जा रहे है, वे सवाल कारखाना या प्लांट की स्थापना प्रक्रिया के शुरू होने के पहले भी होंगे। उस समय ममता ने अपने आंदोलन को उग्र रूप क्यों नहीं दिया? अब जब टाटा ने हजारों करोड़ रुपये का निवेश कर दिया है, तब ममता ने क्यों अड़ियल रुख अपना लिया है?
साफ तौर पर टाटा का नैनो ममता और सत्तारूढ़ दल के बीच जारी वचॆस्व की लड़ाई में फंस गया है। इस समय हजारों लोगों के सपने इस प्लांट के साथ जुड़े होंगे। लेकिन टाटा का प्लांट दूसरी जगह पर ले जाने का प्रस्ताव उन सपनों को तोड़ने जैसा होगा। तीन सितंबर को एक पिता ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे अपने पुत्रों के नौकरी छूटने का भय सताने लगा था।
हमारा मानना है कि ममता द्वारा अपनी मनवाने के लिए भी जिस तरह के रुख का प्रयोग किया जा रहा है, वह कहीं से उचित नहीं है। समस्याओं को बातचीत और सहज संवाद के जरिये भी सुलझाया जा सकता है। आज यह देश अगर विकासशील होने की बात कह रहा है, तो वह उन कारखानों और उद्योगों के बल पर कह रहा है, जो आज से २० से ४० साल पहले यहां स्थापित किये गये। उस समय भी विस्थापन हुआ। विवाद आज भी है। लेकिन कहीं भी विकास की राह में रोड़े अटका कर अपनी बात मनवाने का काम नहीं किया गया।
पं बंगाल से यदि टाटा का जाना होता है, तो यह वहां होने जा रहे निवेश में रुकावट पैदा करने जैसा होगा। आखिर आक्रामक रुख अपना कर इस प्रजातांत्रिक देश में राजनीतिक दलों के लोग जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं, पता नहीं। आज अगर पश्चिम और उत्तर-पूवीॆ भारत में आथिॆक असमानता दिखती है, तो इसके पीछे कारण यहां के राजनीतिक दलों की गलत सोच और रुख ही है। कम से कम ममता बनजीॆ का वतॆमान रवैया तो गलत ही प्रतीत होता है। अवसरों को ठुकराना मुसीबतों को दावत देना ही है। हाथ में आयी उपलब्धियों को बातचीत के जरिये नहीं मनवा कर जिद और बंद के जरिये मनवाने का लगातार प्रयास ममता कर रही हैं। ऐसा माहौल बना कि टाटा अपने प्लांट को ही वहां से हटाने का विचार करने लगा है।
रोड जाम, बंद और आंदोलन एक इनसेक्योर एटमोसफेयर बना रहे हैं। समस्या समाधान के लिए बातचीत की जा सकती है। एक एजेंडा तैयार कर उसका सवॆसम्मत हल निकाला जा सकता है। लेकिन सत्ता की चाह ने शायद इन दलों की आंखों पर पट्टी बांध दी है। सरवे के अनुसार बंगाल के भी अधिकांश लोग प्लांट लगाने का समथॆन करते हैं। क्योंकि यहां कम तकनीकी योग्यतावाले भी काम कर सकते हैं। मेरा तो यही मानना है कि टाटा का आप स्वागत करिये। हां, अगर कोई विवाद है, तो उसे बातचीत के जरिये हल करने का प्रयास करें, न कि आक्रामक रुख अख्तियार कर गलत तरीके से।

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