कल एक सीरियल देख रहा था।
दृश्य था-बेटा पत्नी के बहकावे में अपने पिता को डूबाना जा रहा है। साथ ही उसके अंतरद्वंद्व को पेश करते हुए बैंकग्राउंड से बीते जीवन की झलकियों को एक भावनात्मक गीत के सहारे पेश किया जा रहा है। गीत था-मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राजदुलारा।
एक कणॆप्रिय गीत के बोल को पेश कर भावना के चरम बिंदु को छूने की कोशिश।
सारा कुछ एक झटके में करंट सामान बीत गया। पूरी एकाग्रता को टीवी सीरियल बटोरने में सफल रहा।
लेकिन इसके साथ एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि नारी के किस स्वरूप का इन सीरियलों में चित्रण किया जा रहा है। एक तरफ स्त्री के दैवी स्वरूप को दिखाया जाता है, तो दूसरी ओर जैसी आक्रामकता का स्वरूप पेश किया जाता है, उससे दिलोदिमाग की नसें कस जाती हैं। मन सोचने को विवश हो जाता है कि क्या ऐसा हो सकता है? क्या पत्नी और सास के बहकावे में आकर कोई माता-पिता को इतने कष्ट दे सकता है? कई सवाल हैं?
पेशेवर होते जा रहे सीरियलों में जैसे पात्रों को पेश किया जा रहा है, हो सकता है कि वे कुछ दिनों बाद समाज में हकीकत में घूमते नजर आयें। क्योंकि बार-बार स्वाथीॆ होने का ऐसा पाठ पढ़ाया जा रहा है कि विवेकी तो विवेकी, देवता भी सामने आकर पानी मांगने लगें।
जो दो-चार सवाल हैं, उनमें से ये है कि क्या सीरियल बनाते समय निरमाताओं को इस हद तक पेशेवर रुख अपनाना उचित है कि वे समाज के प्रति अपने दायित्वों को दरकिनार कर दें? दूसरा कि क्या नारी के स्वरूप को इस हद तक आक्रामक दिखाना उचित है।
हमारा मानना है कि पारिवारिक बिखराव का संदेश देते सीरियलों के प्रति कठोर कदम उठाने की पहल होनी चाहिए।
Friday, January 9, 2009
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2 comments:
अपने भर कर पाने लायक समाधान - कृपया न स्वयं कभी ये सिरिअल देखें न ही अपने आस पास किसी और को देखने दें. ये लोग सांकृतिक लुटेरे हैं और इनसे हमें अपने संस्कृति को स्वयं ही बचाना पड़ेगा,क्योंकि इन्हे पकड़ने और रोकने वाली सारी संस्थाएं (सेंसर) मृत हो चुकी हैं.
हमारा मानना है कि पारिवारिक बिखराव का संदेश देते सीरियलों के प्रति कठोर कदम उठाने की पहल होनी चाहिए।
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सही है! वैसे गांधीवादी तरीका बहिष्कार का है। जैसे मैं देखता ही नहीं इस तरह का प्रसारण।
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