
मैं पत्रकारिता में डेस्क जॉब से जुड़ा हूं और सामान्य तौर पर हर दिन शाम के चार से रात के १२ बजे तक मेरा जीवन आफिस में सिमटा रहता है। उस हिसाब से हर दिन की शाम मेरी जिंदगी से दूर ही रहती है। एसी रूम और ऊंची दीवारें बाहरी प्राकृतिक दुनिया से मेरे जीवन को दूर कर देती हैं।
इस कारण शाम में आकाश में छायी वो लाली और गोधूली बेला का वो रूमानी दृश्य देखे शायद सालों गुजर गये। कभी कभार जोर जबरदस्ती छुट्टी के दिनों में शाम में घूमने निकल भी जाता हूं, तो वो ख्यालात जेहन में नहीं आते, जो बेफिक्र मन से शाम में सामान्य तौर पर टहलते हुए आते होंगे। यानी नौकरी के इन १२ सालों ने शाम की जिंदगी को दूर कर दिया है।
जब दूसरों को देखता हूं, तो कुछ कल्पना मिश्रित और कुछ खुद की यादों के सहारे एक तस्वीर उकेरने की कोशिश करता हूं कि शाम ऐसी होती होगी, वैसी होती होगी। लेकिन एक टीस मन में रह ही जाती है। एक ददॆ दिल के कोने में छुपा ही रह जाता है। एक बच्चा जो कहीं किसी कोने में छुपा है, बाहर आने को छटपटाता रह जाता है। शाम में पहाड़ों पर चढ़ना, खेलना और लड़ना याद आता है। याद आता है, पहाड़ी की चोटियों पर चढ़ कर पूरे रांची शहर की हरियाली को देखना। याद आता है, टैगोर हिल की चोटी पर चढ़कर अध्याम की बुलंदियों को कोशिश करते लोगों को देखना। याद आता है, लोगों का बतकही करते हुए ठठ्ठा कर हंसना। यानी सिफॆ यादें ही बाकी रह गयी हैं। जिंदगी सरपट भागती चली जाती है। और मैं एक खुशनुमा शाम का अहसास लिये बस जिंदगी जिये चला जा रहा हूं। क्या आप मेरी उस एक खुशनुमा शाम को लौटाने में मेरी मदद कर सकते हैं।
2 comments:
bahut hi sahi baatein likhi hai aapne..
bas yaadein he reh jaate hain...
हमारी तो सुबह-शाम दोनो रेल के नाम!
Post a Comment