Thursday, January 29, 2009

क्या मीडिया डाक्टर इसका इलाज खोजेंगे?

जब ओबसेशन शब्द से टकराता हूं, तो मन में काफी विचार उमड़ते-घुमड़ते हैं। इतने कि सोच भी नहीं सकते। है एक शब्द, लेकिन इतने सूत्र का समावेश है कि मन विचलित हो उठे। वैसे में मीडिया और भारतीय समाज को ओबसेशन के सही मायने में फिट पाता हूं। पाता हूं कि मीडिया और भारतीय समाज पाकिस्तान के प्रति ओबसेस्ड है। पाकिस्तानी संगीत, पाकिस्तनी संस्कृति, वहां की क्रिकेट, अपराध, तालिबान या यूं कहें पाकिस्तान की राजनीति से तो सौ प्रतिशत गहरा लगाव यानी ओबसेशन है। भड़ास निकालनी है, तो गरिया डालिये पाकिस्तान को। तुलना करनी हो, तो वहां की सैन्य, सांस्कृतिक और आरथिक विकास से तुलना करिये, यानी हर चीज में प्लस-माइनस पाकिस्तान के साथ ही करिये।
अब जरा इसे मोटे तौर पर समझिये, क्या ये हमारा नुकसान नहीं कर रहा? मीडिया में नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश की रिपोटॆ सूचनाभर रहती है। भारतीय परिवेश पाकिस्तान से कहीं ज्यादा इनसे प्रभावित है। अब मीडिया बेचारा भी क्या करे, वह हमारी सनक पहचान गया है और जब चाहे तब टीआरपी बढ़ाने के लिए तालिबान का राग अलापना शुरू कर देता है। श्रीलंका मामले में जानकारी भरी रिपोरटिंग की मीडिया से अपेक्षा करना बेकार ही है। नेपाल और चीन के मामले में तो भगवान का ही आसरा है। इस पूरी प्रक्रिया में हमें लगता है कि हमारी स्थिति कुएं के मेढक की तरह हो गयी है। जो एक खास दायरे के बाहर देखना पसंद नहीं करता। पाकिस्तान की बात करें, तो अमेरिका कहां छूटेगा। विदेश नीति के विशेषग्यों का समय भी अमेरिकी प्रशंसा करने में बीत जाता है। अब पाकिस्तान को तो हम समझाने से रहे। लेकिन पाकिस्तानी ओबसेशन का जो असर हमारे ऊपर पड़ रहा है, उसका क्या किया जाये?
भले ही सत्यम असत्यम हो जाये, लेकिन ओबामा, ओबामा की रट नहीं छोड़ेंगे। ओबामा ने ये क्या, वो क्या, पूरी पत्रिका रंग डालेंगे। हर पन्ना ओबामा के अभिवादन में रंगा रहेगा। लेकिन देश के उन गरीबों की ओर कोई नहीं झांकेगा, जो अमेरिकी बाजार की तंगहाली का शिकार होकर मरने को विवश हैं। हमारी पूरी अमेरिका-पाकिस्तान के सेंट्रल प्वाइंट पर घूम रही है। रूस, चीन, अफ्रिका यानी कहें, तो विश्व के बचे हुए शेष देशों से मीडिया का लगाव खत्म होता प्रतीत होता है। साफ तौर पर ये हमारी और हमारे देश की मीडिया का ओबसेस्ड होने को इंगित करता है। अब इसका मीडिया डाक्टर कौन सा हल निकालेंगे। ये तो वही जानें।
हम तो पाकिस्तान ओबेसेशन खुद को मुक्त करने की पहल कर चुके हैं। अब आप लोग क्या करते हैं, ये देखना बाकी है।

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

हम लोग क्या करेगें?.....भाई ,मीडिया वाले जो परोसेगें वही खाते रहेगें और कूपमडूक बनें रहेगें।;)यही तो करते रहे हैं।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

मीडिया में वही दिखाया या पेश किया जाता है जो बिकता है इससे मैं इतेफाक नही रखता हूँ. एक रणनीती बनती है और चॅनल, अखबार पत्रिका चल पड़ती है उसी राह पर. टेलीविजन और न्यूज चैनलों के रवैये पर विरोध करने वाले क्या केवल वे लोग ही हैं जो या तो नेता होने के नाते इसके उपर नकेल कसना चाहते हैं,अफसर होने के नाते इस पर अपनी अकड़ जमाना चाहते हैं या फिर ऑडिएंस होने के नाते इसे भला-बुरा कहकर अपनी भड़ास निकालना चाहते हैं।

आमतौर पर टेलीविजन और न्यूज चैनलों के बारे में जब बात करते हैं तो हम लगभग पहले से ही मान लेते हैं कि चैनल,मीडिया औऱ टेलीवजिन से जुड़े लोग इसके विरोध में नहीं बोल सकते। वो इस पेशे से जुड़े हैं इसलिए उन्हें इसमें किसी भी तरह की बुराई दिखाई नहीं देती है या फिर उनके उपर कुछ इस तरह का दबाब होता है कि वो आत्म-आलोचना नहीं कर सकते। लेकिन दिलचस्प है कि चैनल के लोगों के बीच अब भी इतना माद्दा है कि इसके लिए, इसके भीतर और दिन-रात इसके बारे में सोचते हुए भी इसकी कमजोर नसों पर उंगली रख सकते हैं।
आपने ठीक नस पर हाथ डाला है.

अभिषेक मिश्र said...

Aapne blog par to shuruaat kar di hai, par kya apne akhbaar mein iski pahal kar ske hain! Media Corporate ke isharon par chal raha hai, naaki samaj ki demand par.

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