Sunday, February 15, 2009

शश... मामला संगीन है, संस्कृति या.........

जब ब्रिटेन में एक १३ वषॆ के किशोर के पिता बनने की खबर को चैनल लगातार टीआरपी के लिए दिखा रहे थे, तो एक तमाचा खुलेपन के समथॆकों के मुंह पर भी लग रहा था। क्योंकि पश्चिमी देशों की नकल को ही हम शायद खुलेपन का नाम देते हैं। एक बड़ा सवाल है कि किस स्तर का खुलापन। खुलापन बातों में, विचारों में या उन सभी बातों में, जिन्हें हमारी संस्कृति नकारती है।

करना कुछ नहीं है, अंगरेजी पूरी तरह नहीं जानते, न पाश्चात्य के गुणों को अपनाने की ललक है, लेकिन अगर संस्कृति के नकल की बात की जाये, तो अंगरेजों को उन्हीं की धरती पर बेहतर अंगरेज बनकर मात देने से हम पीछे नहीं हटेंगे। दूसरी ओर हाल ये है कि पश्चिमी देश, खुद अपने यहां परिवार और संस्कार की टूट रही सीमाओं को बचाने के लिए फिक्रमंद हैं। सवाल वही है कि भारत में पब कल्चर, खुलापन और अन्य चीजें किस पैमाने पर हों।

फिर बात होती है संस्कृति की। लाल टीका लगाकर संस्कृति के रक्षक बनकर जो लोग डंडों से दूसरे व्यक्तियों को हांकने की चेष्टा करते हैं, वे किस हद तक भारतीय संस्कृति की टूट रही अवधारणाओं की रक्षा कर पाते हैं। जब फिल्मों, पत्रिकाओं और बातचीत में इस कदर खुलापन आ गया है कि अब ड्राइंगरूम भी सुरक्षित नहीं है। इंटरनेट से हर कोई दुनिया के बाहरी हिस्से से जुड़ा है। तब फिर मध्यकालीन कारॆवाई करते हुए नियंत्रण की कोशिश कितनी कारगर होगी। कहीं न कहीं पूरी विचारधारा विरोधाभास के खंडहर में फंसी हुई है। सवाल वही है कि इसे नेतृत्व देनेवाले किस रूप में आनेवाले सालों में दिशा देने का काम करेंगे। मीडिया, आम आदमी और हर जिग्यासु यही बात जानना चाह रहा है। लेकिन जवाब कौन देगा?

2 comments:

अक्षत विचार said...

हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता है हां विरोध करने के और भी तरीके हैं।

Gyan Dutt Pandey said...

बड़ा शोर है - संस्कृति का। असल में संस्कृति की रक्षा अब समूह या मीडिया नहीं - व्यक्ति ही कर पायेगा।

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