पाकिस्तान की स्वात घाटी में तालिबानी वर्चस्व का तमाशा देखते-देखते एक भय समाता जा रहा है। भय तालिबान से नहीं, बल्कि खुद अपने देश में पनप रही तालिबानी संस्कृति से। तालिबान मध्यकालीन बर्बर सभ्यता का समर्थक होने के साथ-साथ महिला स्वतंत्रता और आम लोगों की आजादी का विरोधी है। उसमें इतनी बर्बरता है कि अफगानिस्तान की धरती कांप उठी थी और दूर अमेरिका तक थर्रा उठा था।
सोचिये अगर उसी कट्टरता के समर्थक हिन्दू संगठन अपने मकसद में कामयाब होने लगें और भारतीय जनमानस को इस कदर उद्वेलित कर दें कि सामाजिक तानाबाना टूटने लगे, तो क्या होगा? हमें पाकिस्तान के बुरे हश्र को देखते हुए सावधान हो जाना चाहिए। जब टीवी चैनलों पर जियो टीवी के पत्रकार की हत्या की खबर मिलती है, तो उसके साथ भारत का चौथा स्तंभ भी खतरा महसूस करता है। जब तक सूचना तंत्र की आजादी को प्रश्रय मिलता रहता है, तब तक सारी आजादी सुरक्षित रहती है। और सुरक्षित रहती है आम लोगों के सोचने की आजादी।
जब मुतालिक जैसे संगठन अचानक सक्रिय हो उठें और कुछ खास तत्व इनके समर्थन में खुलेआम सड़कों पर डंके की चोट पर बवाल करते रहते हैं, तो खतरा महसूस होने लगता है। कुछ हद तक संस्कृति के नाम पर कठोरता अनुशासन कायम रखने तक के लिए ठीक है, लेकिन जब कट्टरता एक हद को पार कर जाती है, तो ये निरंकुशता का रूप ले लेती है। हम ये नहीं कहते हैं कि संस्कृति की रक्षा करने की बात करना बुरी बात है। लेकिन लोगों को उनकी आजादी छीन कर अगर कोई अपनी सोच लादता है, तो वह एक अपराध जैसा है।
तालिबानी संस्कृति का घिनौना चेहरा कट्टर हिन्दुवादी संगठनों में भी देखने को मिल सकता है। अगर भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर हिंसा का नंगा नाच करनेवालों को रोका नहीं गया, तो सबको डरना स्वाभाविक है। डरिये, जरूर डरिये, क्योंकि बगल के पाकिस्तान का हश्र देखकर डरना जरूरी है। ये अब हम पर निर्भर करता है कि समाजवादी विचारधारा का अंत कर कट्टरतावाद को बढ़ावा देने को हम कितना रोक पाते हैं। इसलिए तालिबान का भारतीय संस्करण हमारी विचारधारा और मिश्रित संस्कृति को मटियामेट नहीं कर डाले, इसके प्रति हमें सचेत रहना होगा।
Thursday, February 19, 2009
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3 comments:
पर जो अचेत हो चुके हैं
उन्हें चेताएंगे कैसे।
bahut sahi likha sir jee...
लिखा तो सही है और अविनाश जी भी तो सही कह रहे हैं।
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