जिंदगी को कटी पतंग की तरह छोड़ देनेवालों को देखता हूं, तो मन कौंधता है। आखिर क्या वजह है कि कुछ लोग जिंदगी के जंग से हार जाते हैं और मौत को गले लगा लेते हैं। सैकड़ों उदाहरण हैं। दस सालों में भीड़ शहरों में और बढ़ी है। मोबाइल ने संपर्कों को और आसान बना दिया है। लेकिन जिंदगी में लोग अकेलापन ज्यादा महसूस कर रहे हैं। दर्द और शिकायतों को बांटनेवाले नजर नहीं आते। अपनी व्यथा किससे कहें, ये गम लिये पुराने गीत के बोल एक अकेला इस शहर में लब पर रुक-रुककर आ जाते हैं। किशोर के दर्द भरे नगमों में जिंदगी को आदमी तलाशता नजर आता है।
आज-कल मैदानों में बच्चों की भीड़ भी नजर नहीं आती है। हम अपनी उमर से बीस साल छोटे बच्चों के मनों को टटोलना चाहते हैं, उनसे संवाद करना चाहते हैं, लेकिन चार घरों की दूरी पर रह रहा राजेश भी अब बगल के मोहन को नहीं पहचानता।
टीवी के चोर रास्ते से वह मन की दीवारें खोलने की कोशिश करता है। उसे किसी फिल्म का हीरो या टीवी का एंकर ज्यादा नजदीकी लगता है, बनिस्पत के पड़ोस के रामू काका या अपने ताऊ के। फेसबुक में मित्र मंडली की संख्या बढ़ाते आदमी रिश्तों को खोजता है। लेकिन घर में रहनेवाले मां-बाप से उसकी बातचीत नहीं होती। एक अनाम रिश्ते को नाम देने की पुरजोर कोशिश होती है। लेकिन स्थापित रिश्तों की किसी को परवाह नहीं है। ऐसे माहौल या दौर में किसी व्यक्ति का दर्द बांटने आखिर कौन आयेगा। कौन उस सफेद हो चुकी जिंदगी में रंगों को बिखेरेगा।
फिर होली आ रही है। लेकिन फिर पिछले सालों की तरह हर कोई अपने घरों की दीवारों में खुद को कैद कर लेंगे। एसएमएस से मैसेज भेजकर संबंध निभाने की परंपरा का सूत्रपात होगा। रंग बस पुड़िये में बंधकर घर के कोने में पड़ी रह जायेगी। टीवी के स्क्रीन पर तो रंगों की बरसात होगी, लेकिन हमारे सफेद कपड़े रंगों की बौछार से दूर रहेंगे, क्योंकि हमारा कोई अपना नहीं रहेगा,जो आके जबरदस्ती हमें रंगों में डुबो जाये, जिसे हम मीठे गुस्से से मिश्रित हंसी के साथ स्वीकार करें।
हमने तो अपनापन को कब्र में दफन कर दिया है। किसी को अपना नहीं बनाया है। लगे रहो मुन्ना भाई की जादू की झप्पी अच्छी लगती है। क्योंकि वो हमें सपने दिखाती है कि हमारी पुरानी जिंदगी फिर लौटेगी। चाचा, चाची, दादा, दादी और बड़ी दीदी की जादू की झप्पियां फिर मिलेंगी, लेकिन क्या फिर वैसा हो पायेगा। जिंदगी में अपनापन का रंग लौटेगा। बदरंग हो चुकी जिंदगी में वैसी ही रगों की नदी बहेगी।
एक सपना है, जो मृगमरीचिका की भांति तरसा रही है, तरसाती है पल-पल।
काश, हम-आप इस मन की कसक, छटपटाहट को समझ पाते।


5 comments:
आपकी चिंता बाजिव है। हमने अपनी जिंदगी को अपने तक ही सिमेट लिया है।
वर्तमान की त्रासद स्थिति का बड़ा ही सटीक वर्णन किया है आपने.......
पहले जब हम संसाधनहीन थे तो दूर रहकर भी दिलों से बहुत पास हुआ करते थे ,आज संसधान्युक्त होकर भी कितने अकेले हैं.दुनिया सिमटकर छोटी हो गयी है,पर हम रिश्तों से दूर हो गए हैं.
आज की स्थिति का सटीक चित्रण किया है आपने...अपनी अपनी महत्वाकांक्षा और काम के बोझ के तले दबे हम सारे रिश्ते भूलते जा रहे हैं।
अब तो फिल्मों और सिरिअलों मेंही अपनापन तलाश कर संतुष्ट हैं लोग. सही कहा आपने.
ऍसा क्यूँ हो रहा है इस पर भी विचार करना आवश्यक है। आखिर क्यूँ हम अपनी आस पास की जिंदगी से दूर भागना चाह रहे हैं। शायद वास्तविक रिश्तों को निभा पाना, आभासी रिश्तों की अपेक्षा ज्यादा दुरुह हो गया है।
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