Monday, February 16, 2009

देवांग साहब का कहना कि बाबरी मसजिद के ढहाने के समय वे वहां मौजूद थे या नहीं, थोड़ा भेद जाता है दिल को

जब देवांग एनडीटीवी के शो मुकाबला में बहस करवाते हैं, तो दिलचस्प होता है। अच्छा लगता है बुद्धिजीवियों को सुनते रहना। दो दिन पहले बहस हो रही थी भारतीय संस्कृति की। एक खास वक्ता पर देवांग साहब का जोर देते ये कहना कि बाबरी मसजिद के ढहाये जाने के समय वे वहां मौजूद थे या नहीं, थोड़ा भेद जाता है दिल को।

यहां कहा दिल को। क्योंकि मामला दिल से जुड़ा था।

मामला था कि आज के युवा पब जायें या नहीं और वेलेंटाइन डे मनाये या नहीं। मसाला भरपूर था और वक्ता भी पुरजोर तरीके से अपनी बात रख रहे थे। उस बीच बहस के आयोजनकर्ता द्वारा राम जन्म भूमि मसले को उछाला जाना एक सवाल छोड़ जाता है। सवाल ये छोड़ जाता है कि सेंसिटीव मुद्दों को बहस के दौरान उठा कर क्या कोई प्रतिफल मिलता है? क्या समस्या का समाधान हो पाता है। या सही विषय वस्तु या कहें कान्सेप्ट को दर्शकों को सामने प्रस्तुत किया जा सकता है।

हमारे विचार से कदापि नहीं। जब बहस का मुख्य मुद्दा पब संस्कृति और वेलेंटाइन डे मनाने का है, तब फिर उस बीच में राम जन्म भूमि का मसला कहां से आ जाता है। महत्वपूणॆ सवाल ये है कि क्या राम जन्म भूमि विवाद को सीधे तौर पर भारतीय समाज के वतॆमान रहन-सहन या संस्कृति से जोड़ा जा सकता है। हमारे इतिहास से उसका संबंध हो सकता है, लेकिन हमारी जीवनशैली से नहीं। महत्वपूणॆ बातें तो वे हैं, जिनसे हमारा जीवन और दशा सीधे प्रभावित होता है।

राम जन्म भूमि का मसला ऐसा भी नहीं है कि सिफॆ किसी चैनल द्वारा किसी व्यक्ति विशेष या पारटी को गरिया देने से सुलझ जायेगा। एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर टीका टिप्पणी करने से पहले किसी चैनल के उद्ऽघोषक या संपादकों को सोचना होगा। मुद्दा भटक गया था। तात्कालिक तौर पर मुद्दा भाजपा, आरएसएस बनाम अन्य दलों का बन गया। वक्ता ने किसी प्रकार की हिंसा का विरोध करते हुए कमीशन की रिपोटॆ आने तक मामले पर ज्यादा बोलने से इनकार कर दिया।

न्यूज चैनल जब खुद ये सवाल उठा रहे हैं कि उनके द्वारा प्रस्तुत की जा रही सामग्री कितनी स्तरीय हैं, तो उन्हें ये भी महसूस करना होगा कि भावनाओं को उद्वेलित कर टीआरपी हासिल करने का खेल ज्यादा दिन नहीं चलता। बहस तभी तक अच्छी तक लगती है, जब तक वह खास दायरे से बाहर नहीं निकले।

हमारे ख्याल से मीडिया को हमेशा ये ख्याल रखना होगा कि उसे सिफॆ समाचार देने, विश्लेषण करने और नजरिया रखने का हक है। फैसला करने के लिए दशॆक और आम जन हैं। इन बातों को नकारना आईने से मुंह चुराना होगा।

8 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया पोस्ट लिखी है।बधाई।

अविनाश वाचस्पति said...

माया बनाने और उपजाने के
खेल खेल रहे हैं सारे ही हैं
चैनल वाले, कोई नहीं चाहता
समस्‍या का समाधान, माया
पाना और बनाना बने आसान।

Anonymous said...

सत्‍यवचन।

admin said...

सही बात कही आपने। पब सम्बंध बहस में मंदिर मस्जिद जैसी बहस को उठाना अनुचित है।

Shiv said...

देबांग जैसे न जाने कितने टीवी पत्रकार हैं जिनका मानसिक दिवालियापन रोज देखने को मिलता है.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यह सिर्फ़ और सिर्फ़ मानसिक दिवालिएपन का मामला है. और कुछ नहीं.

डॉ .अनुराग said...

सीमा रेखा कितनी लम्बी ओर मोटी हो..ओर कौन इसका माप तय करे ..असल झगडा तो यही है...

Admin said...

पहले यह साफ़ कर दूँ की उन्हा नाम दिबांग है... दूसरा नाम आप ठीक से देख नहीं पाए बाकि क्या सुना होगा...

बहस को दिमाग से सुना जाता है... प्रसंग चर्चा में ही आते हैं.. पब और मंदिर की बात नहीं बात तर्क की है..... चाँद पर थूकने का प्रयास न करें.. मुंह आपका ही गन्दा होगा....
मेरी अल्पविकसित बुद्धि आपकी बात का मर्म समझने में असमर्थ है... माफ़ करें...

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