८० के दशक की शुरुआत में अमिताभ की फिल्में खूब हिंट हुईं थी। एक उग्र नायक की भूमिका में अमिताभ सबके दिलों पर छा गये थे। उसके पहले भी नायक हुए। फिल्मों से इतर राजनीति में भी विचारधारा को लेकर हीरो बनते और बिगड़ते रहे। अब आज की तारीख में देखने पर हम पाते हैं कि विचारधाराओं की श्रृंखला लंबी होती जा रही है और उसके साथ समाज के हीरो की संख्या भी। लेकिन अब हीरो कोई मागॆदशॆन नहीं करते। पहले के हीरो दीघॆकालिक यानी लंबे समय के लिए होते थे, पर आज के हीरो कुछ दिनों के लिए होते हैं।
मुतालिक साहब भी उन्हीं में से एक हैं। सामाजिक उद्दंडता के नाम पर उन्हें मीडिया और तथाकथित विरोधियों ने हीरो बना दिया है। लंबी-लंबी बातें की जा रही हैं। शायद आज वेलेंटाइन डे के बाद कल की अखबारें भी तथाकथित सेना की झूठी बहादुरी की कहानियों से रंगी होंगी। काफी कुछ है कहने को। अब सिर धुनने के बाद एक ही बात का ख्याल आता है कि ये जो तथाकथित प्रतिक्रियावादी हैं, जिन्हें हम हीरो बना दे रहे हैं, उन्हें हम कब नजरअंदाज करेंगे। उनके सामने आते ही हमारी नसें ऐंठनें लगती हैं और हम उन्हीं की तजॆ पर शोर मचाने लगते हैं।
जरूरी है कि हम मौन रहना भी सीखें। हम उनकी उद्दंडता का जवाब उनका सामाजिक बहिष्कार करके दें। न कि उन्हें समाज का हीरो बनाकर। लेकिन इसकी पहल सामाजिक उद्दंडता करनेवाले हर व्यक्ति के साथ होनी चाहिए। इसका एक ही उपाय है कि हम मौन धारण करें। ऐसा मौन, जो उनमें ऐसा भय उत्पन्न करें, जिसके बाद वे दोबारा ऐसा करने के बारे में सोचें। उनकी प्रतिक्रिया का जवाब उनका बहिष्कार करके दें। हर स्तर पर। गांधीवादी विचारधारा के हिसाब से लड़ने का ये एकमात्र प्रमुख हथियार है।
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2 comments:
बौने हीरोइज्म का जमाना है।
सच कहा आपने -पहले के हीरो दीघॆकालिक यानी लंबे समय के लिए होते थे, पर आज के हीरो कुछ दिनों के लिए होते हैं।
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