Wednesday, March 11, 2009

भगवान बचाये आउटसोर्सिंग की मायावी दुनिया से

जब आउटसोर्सिंग को लेकर पहले बात होती थी, तो पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ता था। हमारे जैसे नासमझ, तो ये समझते थे कि हम बिना किसी का हक मारे अपनी नौकरी करेंगे, करते हैं और कमायेंगे और कमाते हैं। बाद में जाना कि एक देश में लाख रुपये का धंधा, दूसरे देश में सौ रुपये में करने, कराने को आउटसोर्सिंग कहते हैं। यानी शुद्ध रूप से हजारों लोगों को बेरोजगार करके दूसरे देश में उतने ही लोगों को रोजगार देने का धंधा। ग्लोबलाइजेशन के दौर में तो हवा ऐसी निकली है कि खर्च कम करने के बहाने सरकारी विभाग और संस्थान भी आउटसोर्सिंग का सहारा लेने लगे।

हमारा इस पोस्ट को लिखने का मकसद ये है कि हम किसी दूसरे देश के नागरिक का हक मारकर नौकरी हासिल कर क्या स्थायित्व की तलाश को पूरी कर पायेंगे? हमारे जीवन का उद्देश्य क्या हो? हमारी नौकरी का ध्येय क्या हो? आप सोच रहे होंगे कि ये क्या संत टाइप का प्रभात विचार उड़ेलने लगा है। लेकिन इस मंदी की मार ने चमचमाती चिमनी में लिपटे चिथड़े को सामने उघाड़ कर रख दिया है। सस्ता और कम दाम में निपटाने का धंधा हमारे-आपके पेट पर लात मार रहा है।

जरा कल्पना कीजिये, कल के दौर में अफ्रीका को नये इंवेस्टमेंट डेस्टीनेशन के तौर पर प्रोजेक्ट क्या जाने लगे। और यहां की नौकरियों का अफ्रीकी देशों में आउटसोर्सिंग किया जाने लगे, तो हमारा क्या होगा? कम लागत में अधिक मुनाफा का धंधा करनेवाले कभी ऐसी संस्था या कहें इंस्टीट्यूट नहीं खड़ा कर सकते, जहां आप सर उठाकर चलने के लिए आनेवाली पीढ़ी के लिए कुछ छोड़ सकते हैं।

वैश्वीकरण की आड़ में हम दूसरे देश के नागरिक का हक मार कर जरूर ऐसा गुनाह कर रहे हैं कि हमें भगवान भी माफ नहीं करेगा। हम खुद अपने ही देश में क्यों नहीं उस स्थायी विकास पर जोर दें, जहां संस्थाओं का निर्माण हो और लोगों को लंबे समय के लिए ही सही एक ठोस आमदनी के साथ रोजगार प्राप्त हो। ऐसा नहीं कि आज कोई नौकरी में योगदान दिया और कल वहां से सड़क पर जाने का रास्ता दिखा दिया जाये।

अर्द्धबेरोजगारी का दंश झेल रहे उन हजारों लाखों इंजीनियरों और शिक्षित बेरोजगारों से उनके दिल का हाल जरूर जानिये, जो इस मंदी के कहर को झेल रहे हैं। जब अमेरिकी सरकार बेलआउट पैकेज के नाम पर खुद नये नियम बना रही है, तो हम क्यों उसी राह को चुनने के लिए बाध्य हों। इन सब छटपटाहट के बीच नेहरू का समाजवाद बुरा नहीं लगता। हमें तो फिर से उसी सरकारी नियंत्रण को फिर से लागू होते देखने की इच्छा होती है, जहां कम से कम दो वक्त की रोटी के लिए आमदनी सुरक्षित रहती थी और है।

3 comments:

अभिषेक मिश्र said...

इन्ही परिप्रेक्ष्य में नेहरु और गाँधी की सोच की सार्थकता महसूस होती है.

दिनेशराय द्विवेदी said...

विकासशील देशों के लिए नियंत्रित अर्थव्यवस्था ही उत्तम है। अनियंत्रित पूंजीवाद तो मनुष्यों को रोंद रहा है।

Gyan Dutt Pandey said...

पैसा तो वहीं जायेगा, जहां वह पनपेगा। तकनीकी विकास के साथ यह और तरलता से होगा।
धन संवर्धन के नियम प्रचुरता और सकारात्मकता की मानसिकता से निकलते हैं। समाजवादी/साम्यवादी संकुचन से नहीं।

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