Friday, March 20, 2009

हम मतदाता खुद क्यों नहीं सुधरते? (नेता नहीं, हमारा नजरिया गलत-२)

भरी भीड़ में जब आप किसी की प्रशंसा के दो शब्द कहेंगे, तो कोई आपकी ओर देखेगा भी नहीं, लेकिन चिल्ला कर गाली दीजिये और लोग आपकी ओर चौंक कर देखने लगेंगे। सिस्टम को गरियानेवाली मानसिकता के साथ मुझे कुछ ऐसा ही लगता है। नौकरशाह, राजनीतिक और पुलिस के साथ सिस्टम को हिकारत की नजर से देखनेवालों की संख्या लगता है बढ़ती जा रही है। इसमें हम टिपियानेवाले तो उसमें २० हैं। ड्राइंग रूम में पंखें की ठंडी हवा के नीचे की-बोर्ड के सहारे अपनी नाराजगी जताने की चेष्टा करते हैं।
जिन लोगों को नेताओं के प्रति नकारात्मक नजरिया रखना सही लगता है, वे क्या ये बतायेंगे कि
नेताओं के बिना क्या ये देश चल सकता है?
क्या सिस्टम में सुधार के लिए आप बिना नेतृत्व के आगे बढ़ सकते हैं?
जो ये कहते हैं कि ये नेता खराब हैं, तो उनसे हमारा कहना है कि खराब नेताओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिए आपके वोट का एक बटन ही काफी होता है। उसके प्रयोग के समय तो आप-हम कोई गंभीर होकर चिंतन नहीं करते हैं। जिस कारण अयोग्य व्यक्ति हमारा प्रतिनिधि चुना जाता है। हम ये नहीं सोचते हैं कि जिस अभिनेता को हम सदन में भेज रहे हैं, वह एक प्रतिनिधि के तौर पर हमारे लिये कितना समय देगा। या कोई अपराधी छवि का व्यक्ति कैसे समाज सुधार के लिए सदन में बतौर प्रतिनिधि हमारी सहायता करेगा?
चुनाव आने से पहले जो मुद्दे और बहस होनी चाहिए, वे इस शोर में दब जाती है कि कौन सी पार्टी ने कितने आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट दिये हैं। बहस ये होनी चाहिए कि हम या आप इन अपराधी या नकारात्मक छवि वाले लोगों को प्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने से कैसे रोकें। अगर मतदाताओं की सोच सही हो जाये, तो सारा सिस्टम खुद सुधर जायेगा। जो नेता सदन में जाते हैं, वे हमारे रवैये और नजरिये को ही प्रतिबिंबित करते हैं।
इसलिए नेताओं को गरियाने से पहले आत्मचिंतन करते हुए जरूरत है कि हम व्यक्तिगत स्तर पर सोच में बदलाव लायें और निष्पक्ष होकर देश और समाज की बेहतरी के लिए मतदान करें।

2 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत सही! अन्य सभी को (अपने सिवाय) कोसना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है!

Anonymous said...

ये एक हास्यास्पद टिपण्णी है ...

१)"नौकरशाह, राजनीतिक और पुलिस के साथ सिस्टम को हिकारत की नजर से देखनेवालों की संख्या लगता है बढ़ती जा रही है। "

निश्चित लोकतंत्र तानाशाही से बेहतर है . हिकारत तो नहीं पर सिस्टम की दशा और दुरुपयोग को देखकर उद्विग्न लोगों की संख्या बढती जा रही है . सचमुच अब इस कुकर्म में टिप्पीयाने वाले लोगों के साथ उच्चतम नयायालय भी शामिल हो चुका है .सुप्रीम कोर्ट आयेदिन नेतागण को उनकी अकर्मण्यता, दुराचरण, सीबीआई जैसे संस्थाओं के राजनैतिक दुरुपयोग और असम -पश्चिम बंगाल में वोट बैंक ग्रोथ के लिए बंगलादेशी घुसपैठियों का राशन और वोटर कार्ड देकर भारतीयकरण जैसे मुद्दों पर फटकार लगाकर विधायिका में टांग अडाने की जुर्रत करने लगा है .
सही भी है जरा जाकर देखिये पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में घुसपैठ से जनसँख्या का संतुलन इतना गडबडा गया है कि मूल देशवासी रोज के अवैध घुसपैठ के कारण अपने ही देश में घुसपैठीयों के रहम पर शरणार्थी जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

२)"नेताओं के बिना क्या ये देश चल सकता है?
क्या सिस्टम में सुधार के लिए आप बिना नेतृत्व के आगे बढ़ सकते हैं?"

नेताओं के बिना तो कुछ भी नहीं चल सकता . पर किसी क्षेत्र से सारे प्रत्याशी बाहुबली,भ्रष्ट अयोग्य हो तो क्या करें ?क्या ऐसे ही नेता शेष रह गए हैं देश चलाने के लिए?
नेता ख़राब नहीं पर ख़राब नेता क्यों?अब जनसेवा के लिए शायद ही कोई आता हो सब राजनीती में दो और दो पांच करने आ रहे हैं . पहले की अपेक्षा कुछ भी तो नहीं बदला बल्कि ज्यादा बदतर और नंगा हो गया है . प्रत्याशिओं को उनके चरित्र और योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि मोटी रकम ,अभिनय,जात-धर्म ,और बाहूबल को देखकर टिकट दिया जा रहा है. अब ये लोग इन्वेस्ट कर रहे हैं तो multibagger रिटर्न की आश जरूर लगाये बैठे होंगे.
भारतीय राजनीति में घुसने वाले कूडों को प्रवेशद्वार पर ही रोक देना चाहिए . चुनाव में शामिल होने से पहले इनकी काबलीयत नापने के लिए इनकी बुद्धिजीविओं के समक्ष सार्वजनिक स्क्रीनिंग होनी चाहिए . अमेरिका में प्रत्याशिओं के बीच जिस तरह बहस होती है यहाँ क्यों नहीं होती?

३)"बहस ये होनी चाहिए कि हम या आप इन अपराधी या नकारात्मक छवि वाले लोगों को प्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने से कैसे रोकें। अगर मतदाताओं की सोच सही हो जाये, तो सारा सिस्टम खुद सुधर जायेगा। "

जैसे सीमा चाक चौबंद न रख पहले हम आतंकवादियों को घुसने देते हैं और वारदात हो जाने के बाद चूहा-बिल्लीगिरी में परेशान रहते हैं . उसी प्रकार लोकतंत्र में विषाणुओं के अबाध प्रवेश और उस पर से सिस्टम के स्वतः ठीक हो जाने की आस कहीं भारत के मर्ज़ को लाइलाज न कर दे . भारतीय लोकतंत्र सिर्फ आकडों पर आधारित खेल है. देश की बहुसंख्यक गरीब जनता में आत्मचिंतन के शक्ति नहीं है . हम मतदाताओं की सोच बदलते बदलते कहीं बहुत देर न हो जाए और हमे भारत के बिखरे पुर्जों को सँभालने के लिए लॉन्ग मार्च करना पड़े...

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