Tuesday, March 24, 2009

प्रतिस्पर्द्धा का युग है, तो नेताओं को प्रोफेशनल होना होगा

टीवी पर हुंकार भरते आडवाणी और विनम्र भाव से किये गये वार का जवाब देते मनमोहन मन को मोह लेते हैं। कलर चैनल बेकार हो गया है। सास-बहू की किटपिट लोग भूल गये हैं। मोहन जी की आफिस की परेशानी अब परेशानी नजर नहीं आती है। जनता भी कंफ्यूजन की स्थिति में है। कौन अच्छा है, कौन खराब, कौन उम्दा है और कौन बेकार, इसका टेस्ट नहीं मिल पा रहा है।

मनमोहन प्रधानमंत्री पद पर हैं। उन्हें आडवाणी कमजोर कहते हैं। मनमोहन उन्हें जवाब में खुद उनके गृह मंत्री के कार्यकाल में किये गये कार्यों की याद दिलाते हैं।

दोनों ही पार्टियों के नेताओं को आमने-सामने बैठाकर लंबी बहस होनी चाहिए। बहस ये होनी चाहिए कि जो वादे इन दोनों ही पार्टियों ने किये थे, वे पूरे क्यों नहीं हुए। अगर राम मंदिर विवाद को इन सत्रह सालों के बाद भी जवाब चाहिए, तो धिक्कार है। अगर देश की चरमराती व्यवस्था को संभालने में मनमोहन सरकार के पसीने छूट जाते हैं, तो हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन जी को ही जवाब देना होगा कि उनके द्वारा शुरू किया गया उदारीकरण देश को किस अंधेरी खाई की ओर ले जा रहा है। जिस देश में हर रोजगार करनेवाले ये चिंता सताती हो कि उसका भविष्य सुरक्षित रहेगा कि नहीं, उसमें बेरोजगार युवकों को कौन दिलासा दिलायेगा।

तुम गलत और हम सही के शोर में आम जनता के कान बहरे हो रहे हैं। ये शोर कोई नहीं सुनना चाहता है।

इन दलों को सीधे मुद्दों पर बातें करनी चाहिए -
वे सुरक्षा के लिए क्या करेंगे?
पाकिस्तान और अन्य देशों के साथ उनका रुख कैसा होगा?
रोटी, कपड़ा और मकान तीन बुनियादी जरूरतों को अगले पांच सालों में कैसे पूरा करेंगे?


उदारीकरण का दौर है। प्रतिस्पर्द्धा का युग है, तो नेताओं को प्रोफेशनल होना होगा। इन्हें भी टारगेट ओरिएंटेड माइंड सेट के साथ जनता के दरबार में जाना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि हम इतने सालों में, इतने समय में और इतनी लागत में आपका ये काम कर देंगे। विकास का इतने साल बाद ये पैमाना होगा। पूरी गणितीय प्रणाली पर बहस करें ये दल। भावना में बहा-बहाकर कितने दिनों तक वोट लेते रहेंगे, पता नहीं।

पब्लिक भी लाउडस्पीकर की आवाज को सुनना नहीं चाहती। वह अपने नेता से सीधा संवाद चाहती है। वह चाहती है कि हमारे नेता सीधे हमारे पास आयें। हमारा दर्द सुनें। हमारी आहत भावनाओं को जानें। इस मायने में बिहार में नीतीश सरकार का गांव चलो अभियान से सीखने की जरूरत है, (इसे अन्यथा न लें)। जहां पर जो अच्छाई उसे सामने रखना ही होगा।

नेता, आम जनता के साथ हमसफर बनें। उनके साथ कदमताल करते हुए चलें। इस देश की हर समस्या चुटकियों में हल होगी। कुछ दिनों पहले तक यहां का हर नेता ओबामा बनना चाहता था। ओबामा ने अपने देश के लोगों से सीधा संवाद किया। वैसा ही संवाद यहां हमारे देश के भी नेता करें। जरूरत है कि नेता,नेता न रहें, बल्कि आम जनता के सेवक बनकर उनके हमकदम बन चलें।

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