इस देश में ऐसा क्यों है कि लोग कर्तव्य से ज्यादा अधिकार के बारे में जानते हैं। मतदान और राजनीति के प्रति जागरूकता देश के लिए अच्छी चीज है। इससे ज्यादा अच्छी चीज ऊंचा लक्ष्य रखना है। वैसे में भारत में इस बार की राजनीति दिलचस्प हो गयी है। प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखनेवालों की कतार दिन ब दिन बढ़ती जा रही है और बढ़ती जा रही है पेंचों की संख्या। ऐसे पेंच जिन्हें सुलझाने के लिए दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े गणितबाजों के गणित फेल हो गये हैं। ये गणित ऐसा है, जो नेताओं की महात्वाकांक्षा के कारण दिन बन दिन कठिन होता जा रहा है। जब नेताओं को पीएम की रेस के लिए लालायित देखता हूं, तो सोचता हूं कि इन लोगों में क्या इस देश को लीड करने की क्षमता है। क्या ये लोग इस देश की जनता को सही मायने में लीडरशिप दे सकते हैं। इस देश को ऐसा पीएम चाहिए, जो सच्चा लीडर हो। नेता नहीं। नेता इस देश में बहुत हैं। वे कठिनाइयों को बढ़ाने के लिए ज्यादा जाने जाते हैं, बनिस्पत के उन्हें सुलझाने के लिए।
आज भारत में लोगों का समूह एक साथ नहीं सोचता। राजनीति की अलग-अलग धारा का समावेश दिल्ली में होता है। उन्हीं धाराओं में से उपजा क्षेत्रीय नेतृत्व सिर्फ अपनी क्षेत्रीय ताकत के बल पर पूरे देश को लीड करने की सोचता है। यहीं से समस्या शुरू होती है। क्षेत्रीयता की भावना का ज्यादा प्रबल होना इस देश के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। हमें भारत का प्रधानमंत्री चाहिए, किसी क्षेत्र का नहीं। खंड-खंड करने की राजनीति से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
इस देश की राजनीति ब्लेमिंग पोलिटिक्स की शिकार हो गयी है। लोगों का कहना है कि विपक्ष का काम सिर्फ और सिर्फ गलतियां निकालने का रह गया है। लेफ्ट की सपोर्ट वापस लेने की धमकी देनेवाली राजनीति ने जो बवाल काटा, उससे राजनीति में गैर-जिम्मेदाराना रवैये को बढ़ावा मिला। जैसे-तैसे विश्वासमत हासिल कर कांग्रेस सिर्फ सरकार बचाती रही। किसी भी मामले में पूर्ण सहमति नहीं मिलती रही। मनमोहन कमजोर करार दिये जाते हैं। अब चारों ओर से कसे गये शिकंजे से खुद को आजाद नहीं कर पाने की बात कोई व्यक्ति कैसे कहे, ये सोचनेवाली बात है। वैसे ही आनेवाले दिनों में भी खिचड़ी संस्कृति का रूप देखने के कयास लगाये जा रहे हैं। उसमें अगर पीएम रेस में नेताओं की संख्या बढ़ रही है, तो ये एक चिंताजनक पहलू है।
मतदाताओं को सोचना होगा कि वे एक क्षेत्र के लिए हैं या पूरे देश के लिए। जब तक क्षेत्रीय पार्टियां राजनीतिक हिस्सेदारी के तहत प्रगति में भागीदार बनती रहती हैं, तब तक तो ठीक है। लेकिन जिस दिन इनके नेता खुद को अपने कद से ज्यादा आंक कर ऊंची छलांग लगाने की जुगत में लग जायेंगे, उस दिन से देश की राजनीति ईश्वर के हाथों में कैद हो जायेगी। इसलिए मत देकर दो या तीन दलों की संसद के ही स्वरूप को तवज्जो देना अच्छा होगा। यही समय की मांग है। हमें काम करनेवाले सहयोगियों की दरकार है, जो मजबूत हों और किसी भी पीएम को सपोर्ट देकर उसके आत्मविश्वास को उस बुलंदी तक पहुंचा दे कि ये देश एक सीध में लगातार आगे बढ़ता रहे। इसलिए हमारे नेतागण भी पीएम बनने की रेस से निकल कर देश को आगे ले जाने की रेस में शामिल हों, यही हमारी उनसे विनती है।
वैसे आगे देखिये होता है क्या?
Monday, April 27, 2009
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3 comments:
हर नेता खुद को बढ़ चढ़ कर बताने में लग जाता अहि ...सोचता है कम होते होते थोडी बहुत इज्जत तो बचेगी
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत अच्छा लिखा है आपने.. आभार
सही है - आगे देखिये होता है क्या?
वैसे लगता है कि हमें अंगूठा ही चूसना है!
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