देखिये, मीडिया का आदमी हूं और बेलाग होकर बोलता हूं। बोलता हूं कि नीतीश कुमार के कामों ने बिहार को ऊंचाई की ओर अग्रसर किया है। राहुल गांधी भी नीतीश को साथ आने का आमंत्रण दे रहे हैं। नीतीश का जादू चल निकला है। उनका आत्मविश्वास और उनके बढ़े कद ने बिहार की राजनीति को ऐसी दिशा दी है कि आनेवाला समय उसके छाये में चलने को कहीं विवश न हो जाये। बिहार की राजनीति के इस बार कई मायने हैं।
अंदर तक बिहार में नहीं गया और न अब समय बचा। लेकिन बिहारी बाबू और शेखर सुमन जैसे लोग जब बिहारी टच देते हुए खुद के बिहारी होने का अहसास दिलाते हैं, ये कहना लाजिमी होगा कि अब पानी में डाला गया नीतीश बाबू का रंग काम करने लगा है। बिहारियों में काबिलियत है, इसका अहसास सभी को है। बिहार की राजनीति इस बार शायद नया अध्याय लिख डाले। इस बार जनता क्या और कैसा निर्णय देती है, ये देखना दिलचस्प है।
पाटलिपुत्र तो काफी पहले से दिशा देने का काम करता रहा है। इस बार का चुनाव लालू के बदले अंदाज और तेवर के साथ ये अंदाज दिला रहा है कि हर किसी का दिन एक जैसा नहीं होता। कुछ-कुछ मौसम बदल रहा है और उसके साथ बदल रहा है लोगों को मिजाज। आज लालू के साथ वे लोग नहीं है, जो कभी उनके साथ कंधे मिलाकर चले।
रेलवे के मैनेजमेंट गुरु होने के बाद अब लालू प्रसाद क्यों नहीं पार्टी मैनेजमेंट में सफल दिख रहे? इस बार लालू के पास वे तीर तरकश और हंसी के गुलगुले नहीं दिखे, जो वे अपने चुनावी दौरों में छोड़ा करते थे। एक और बात कहना है कि बीजेपी का विरोध करनेवाली सारी पार्टियां सेक्युलर के नाम पर एक हो जाती हैं। क्या इस बार फिर ऐसा होगा?
अभी तक तो लालू, कांग्रेस, सपा बस एक-दूसरे से लड़ रही हैं। इसके बीच में लेफ्ट अपना स्थान बनाने की कोशिश में है। इतनी गुलाटी मारती रही हैं पार्टियां कि सब गड़बड़-सड़बड़ लग रहा है। अभी तक तो एनडीए को गरिया रहे थे। अब जदयू को इनवाइट किया जा रहा है। फिर भाजपा को किनारे करने की बात करके सत्ता संभालना की कोशिश होगी। कहा जायेगा -आल आप्शंस आर ओपेन।
ये पोलिटिक्स भी बुरबक बनाने का खेल होकर रह गया है।
भाजपा है कि अपनी पालिसी को साफ रखे हैं। न ज्यादा आक्रामक और न ज्यादा मित्रवत। अगर सबकुछ ठीक-ठाक रहा, तो नये समीकरण नयी तस्वीर पेश कर सकती है। पार्टियों के बदलते तेवर बहुत कुछ साफ कर दे रहे हैं।
अब लिजिये नीतीश ने तारीफ के लिए शुक्रिया कहा, लेकिन एनडीए से जुड़े रहने की बात कही। क्या इस आत्मविश्वास से कोई नया संकेत मिल रहा है। अगर मिल रहा है, तो हमें भी समझाइये।
Tuesday, May 5, 2009
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2 comments:
देखिये, मीडिया का आदमी हूं और बेलाग होकर बोलता हूं।---
बड़ा द्वन्द्वयुक्त वाक्य है! :)
भाई मीडिया ही बेलाग नहीं है तो कैसे बेलाग माने, भारतीय मीडिया पर हाल के वाल स्ट्रीट जर्नल ने भी लिखा है.
संदेहास्पद है,
राहुल और नीतिश राजनीति से परे नहीं और नीतिश का विकास मैंने तो नहीं देखा, पता नहीं कैसे दिखता है.
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