सुना है सपनों के भी पंख होते हैं
हमने भी देखा था सपना कुछ बनने का
अब ३० पार की इस उम्र में
यथार्थ का सामना करते हुए
पाता हूं खुद को असहाय
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एक अच्छा इंसान बनने का सपना टूट गया
छूट गये रिश्ते, छूट गये खींचते वे डोर
अब सिर्फ प्लास्टिक की मुस्कान के साथ
बतकही करते वक्त गुजरता है
जिन रिश्तों की गर्माहट
महसूस होती थी हर वक्त
मिलते थे दो-तीन दिन पर जो हर बार
वे अब मिलते हैं फेसबुक और मोबाइल पर
तरंगों पर सवार होकर करते हैं दुनिया की सैर
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जो किसी की छुअन के लिए तरसते हैं
वे ही हमारे रिश्तों की कब्र खोद
खुद मिट्टी डाल रहे उस पर
हौले-हौले, गरम-गरम मिट्टी
जिसके नीचे अब सिसकती जिंदगी भी बंद हो जायेगी
क्योंकि बदलते वक्त के साथ
रिश्ते बुनने का सपना टूट गया
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टूटते सपनों को बुनते हुए
हम अब संजो रहे फ्लैट का सपना
जहां रहेंगे सिर्फ तीन जन
हम, पत्नी और मेरी बेटी
दुनिया से नहीं होगा मतलब
क्योंकि सपना तो टूट गया
वो तो हमसे रूठ गया
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सपनों को बिखरने मत दो
उसको अब उलझने मत दो
क्या बदलाव की उम्मीद करें हम?
कहीं किसी कोने से
क्योंकि एक बदलाव की उम्मीद से
जगती है आशा
भागती है निराशा
बस एक प्रयास भरकर
टूटते सपनों को बदल डालो
हाथों के कटोरे में गिरते ओस की बूंदों को संभाल लो
Sunday, June 14, 2009
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4 comments:
मैं वही सोच रहा था की प्रभात जी ने इतनी नकारात्मक....मगर अंतिम पंक्तियों ने कविता में जान दाल दी..और मुझे में भी..अच्छा लगा आपका ये अंदाज भी..
सपनों को बिखरने मत दो
उसको अब उलझने मत दो
क्या बदलाव की उम्मीद करें हम?
कहीं किसी कोने से
क्योंकि एक बदलाव की उम्मीद से
जगती है आशा
भागती है निराशा
बस एक प्रयास भरकर
टूटते सपनों को बदल डालो
हाथों के कटोरे में गिरते ओस की बूंदों को संभाल लो
-ये बात एकदम सही कह दी!! बधाई!!
कितने दिनों के बाद ऑरिजनल पढ़ने को मिला। मैं कुछ नहीं कहूंगा बस....यह ऑरिजनल है
हाथों के कटोरे में गिरते ओस की बूंदों को संभाल लो ......
shabd nahi kahne ko...
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