आदमी और प्रकृति में जंग चलती रहती है। स्वाइन फ्लू के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। एक बीमारी जो कहीं शुरू हुई और आज आफत बन चुकी है। हमारे यहां किसी भी दायित्व से जी चुराने की प्रवृत्ति काफी अहम है। शायद इसलिए आज ये नियंत्रण से बाहर होता मालूम होता है। वैसे भी हम जिस हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के बीच रह रहे हैं, उसमें देश के महानगरों के इतर जब कस्बों, गांवों और शहरों की बातें करते हैं, तो चिंतित होना स्वाभाविक है।
भारत आज शायद विश्व में इंजीनियरों की फौज करनेवाला देश है। २० साल पहले तक इंजीनियर बनने के लिए कठिन परीक्षाओं के दौर से गुजरना पड़ता था। आज भी होता है, लेकिन चुनिंदा संस्थानों के लिए। वैसे में सामान्य कॉलेजों में एडमिशन लेना उतना कठिन मालूम नहीं होता। उसमें तुलना करते हुए जरा मेडिकल कॉलेजों की बातें करें, तो पता चलेगा कि डॉक्टर पैदा करने में हमारा देश मीलों पीछे है। टीवी और केबुल के बहाने कम से कम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आयी है, लेकिन ये भी महसूस होता है कि डॉक्टर हमारे यहां कम हैं।
बेहतर स्वास्थ्य सेवा के लिए महानगरों या शहरों की ओर दौड़ना पड़ता है। निजी अस्पतालों में गंभीर बीमारियों का इलाज कराना गरीब के बूते से बाहर की बात होती है। यहां रांची रिम्स में हालात पहले से बेहतर हुए हैं। लेकिन विवादों का सिलसिला चलता रहता है। एक परफेक्ट सिस्टम को तैयार करना शायद इस बढ़ती आबादी में मुश्किल प्रतीत होता है।
जरूरत मजबूत इच्छाशक्ति के साथ सरकार को ही आगे बढ़ने की है। ये काम तो हमारी सरकार को ही करना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर पूरी प्रणाली को बदलना किसी एक की क्षमता से बाहर की बात है।वैसे स्वाइन फ्लू के मामले में कहीं न कहीं हल्कापन जरूर लगता है। जब विदेशों में इस मामले को लेकर हड़कंप मचा हो। डब्ल्यूएचओ ने महामारी घोषित कर दी हो। तब हालात पर शुरू से काबू पाने के लिए जो गंभीरता होनी चाहिए था, वैसे नहीं किया गया। ये त्रासद स्थिति है।
Sunday, August 9, 2009
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2 comments:
बिल्कुल हिन्दी फिल्मों की तरह पुलिस तब आती है जब चोर भाग जाते हैं. नौकरशाही की संवेदन हीनता स्पष्ट है.
बहुत सही लिखा है आपने......अभी भी मंजिल बहुत दूर है....
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