कभी जहां बसता था चमन
आज वो उजड़ चला
हम अपने हाल-ए-दिल पर रहे हैं रो
याद कर रहे हैं वो गुफ्तगू
सुबह-शाम
अब न तो चमन और न रौनक
किससे कहे अपने दर्द
उजड़े चमन में लोग नहीं रहते
उगती झाड़ियों में झींगुरों की झुनझुनाहट के बीच
बस तैरती दिखती है प्रेत की छाया
डराती, सहमाती, हमारी दिल की काया
याद आता है उलझती बहसों के बीच
डांटना, डपटना, झपटना
अब मरघटी सन्नाटे के बीच
तेज चलती हवाओं के साथ
मृत्यु के इंतजार में
यादों के बीच
बीती जा रही है जिंदगी
दर्द किससे कहे, किसे बतायें
कभी जहां बसता था चमन
आज वो उजड़ चला
Monday, August 31, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
वाह वाह !
बहुत खूब !
लिखते अच्छा हैं आप!
पर मृत्यु का इंतजार न करें, मृत्यु का इंतजार क्या करना, जब उसे आना है वह तो आयेगी ही। निराशावादी होने से बचें। "नर हो न निराश करो मन को"! हाल-ए-दिल पर रोने के बजाय खिलखिलाइए! "मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है!"
करना ही है तो कुछ ऐसा करें जो यादगार बन जाए, उजड़े चमन में बहार लाकर उसे लहलहा दे।
दर्द किससे कहे, किसे बतायें
कभी जहां बसता था चमन
आज वो उजड़ चला
-गजब!! बहुत जबरदस्त!
Post a Comment