Monday, December 21, 2009
आमिर खान के बहाने खुद अंदर झांकने का वक्त
पूण्य प्रसून वाजपेयी जी आमिर के जनता के बीच वेश बदलकर घूमने से परेशान हैं। परेशान हैं कि भोली भाली जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। सीधी जनता के साथ। जिसे कि हम मीडियावाले ही ककहरा पढ़ाते हैं। उस आलेख को पढ़ने के बाद मैं परेशान हो गया। मैं परेशान इसलिए हो गया, क्योंकि वापजेयी जी का लेख ये इंगित करता है कि कोई भी पब्लिक को बेवकूफ बनाकर मार्केटिंग कर सकता है। क्या पब्लिक इतनी बेवकूफ है या बुद्धि से परे है कि आमिर उनके पास आएंगे और वह उनकी फिल्में देखने थिएटर की ओर रुख कर जाएगी। अगर पब्लिक इतनी ही बेवकूफ होती, तो न आज नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बनते और न लालू का ये हाल होता। न ही इंदिरा कभी चुनाव हारतीं। न कभी देश में भाजपा सत्ता में आती और न ही उसे मुंह की खानी पड़ती। गुमटी पर गप्पे हांकते आम या मामूली आदमी की दिमागी क्षमता जिंदगी की जद्दोजहद से टकराते हुए इतना तेज हो जाता है कि वह ऊपर बैठे तथाकथित परफेक्ट राजनेताओं तक को नचा सकता है। पब्लिक तो तमाशा देखती है और जब मौका आता है, तो इतना जोरदार झटका देती है कि खुद को चालाक समझनेवाले सीधे नीचे गिरते हैं। सवाल ये है कि आमिर पब्लिक तक पहुंचने के लिए किसका सहारा ले रहे हैं। मीडिया का। मीडिया का आदमी ही उन्हें ये तरीका बताता है कि कैसे आम आदमी को बरगलाया जा सकता है। जबकि हकीकत में मीडिया खुद विरोधाभास की जिंदगी जीता है। हाथ में हरे नोटों को लगातार देखने और गिनने की जो आदत उसे लग चुकी है, वही सारा खेल बिगाड़ रही है। ऐसा नहीं होता, तो हर एपिसोड के बाद आमिर के प्रवक्ता बनकर ये अपील नही की जाती है कि कल आमिर आपके शहर में आ रहे हैं? ये आम आदमी की ताकत ही है कि आमिर को उनका सहारा लेना पड़ रहा है। आज के अभिनेता शूटिंग खत्म कर एसी कमरे में आराम नहीं फरमाते हैं। उन्हें गली-गली ये बताने के लिए भटकता पड़ता है कि हमने इस फिल्म में ऐसे काम किया है। भले ही हम उन्हें उनकी मार्केटिंग रणनीति कहें, लेकिन ये उनकी मजबूरी है। क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा इतनी कड़ी और खतरनाक हो चुकी है कि किसी अभिनेता को भी हाशिये पर आने में दो दिन से ज्यादा नहीं लगते। अगर अमिताभ घर से मंदिर तक पदयात्रा करते हैं, तो इलेक्ट्रानिक मीडिया उनकी हर पल की जानकारी लोगों तक पहुंचाती है। ऐसा कर इलेक्ट्रानिक मीडिया किसका भला कर रहा है, ये हम सब जानते हैं। आमिर की बात व्यक्तिगत तौर पर की जाए, तो ये भी है कि उनके परफेक्शनिस्ट होने की जो छाप जगजाहिर है, उसमें उनका हर अंदाज बिकता है। लगान का आमिर, गजनी का आमिर और अब थ्री इडियट्स का आमिर। हर कुछ अलग है। इसलिए लोग उनके दीवाने हैं। यहां कहना चाहूंगा कि दीवाने हैं, लेकिन बेवकूफ नहीं। पब्लिक भी सभी हीरो को आमिर होने का मौका नहीं देती और न ही सभी को अमितभ बनने देती है। पब्लिक का करंट जिधर जिसे चाहे, ले जा सकता है। अगर आमिर वेश बदल कर घूम रहे हैं, तो ये उनकी खुद की पहल होगी या नजरिया होगा पब्लिक के पास जाने का। पब्लिक को क्या फर्क पड़ता है, अगर कोई हीरो या हीरोईन उससे दो मीठी बातें कर लें। यहां तो मीडिया ही शब्दों, फीचरों और दृश्यों की पैकेजिंग कर आमिर के थ्री इडियट्स को बाजार के लिए तैयार कर रहा है। वैसे भी किसी भी रिपोर्ट को देखकर भी ये बताया जा सकता है कि इसमें रिपोर्टर ने कितनी मेहनत की है। पत्रकारिता जैसे खुले मैदान में कोई सतही तौर पर जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए आमिर के बहाने खुद मीडिया के लोगों और मीडिया को खुद के अंदर झांकने की जरूरत है। क्योंकि अगर सवाल उठे हैं, तो जवाब ढूढ़ा ही जाएगा। और अगर आप आज तटस्थ रहेंगे, तो कल इतिहास आपसे जवाब मांगेगा। समय आ गया है कि इसी कसरत के बहाने आप-हम थोड़ा सेंटीमेंटल न होकर पूरी समझदारी से तथ्यों का आकलन करें।
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4 comments:
बहुत ही अच्छा लेख. प्रसून जी का बेचैन होना तो लाजमी है. जिस चीज का ठेका मीडिया ने ले रखा हो उसे आमिर ले लें! आपने ठीक लिखा है कि जनता की शक्ति ही असली है बाकी सब बेकार.
वाजपेयी जी का लेख पढ़कर जो विचार मेरे मन में आये थे.. आपने हु ब हु उन्हें यहाँ उकेर कर रख दिया है.. आपसे सहमत हु पूरी तरह
Aapke vicharon se poorntah sahmati hai. Ismein bevkoof banane wali kaun si baat hai. Mere khyal se promotion ke ul julool tareekon se Aamir ka ye tareeka aam jan ke dil mein unke prati pyar ko badhayega hi.
सही कहा आपने। मीडिया ने आम आदमी की छतरी कुछ इस तरह से ओढ़ ली है कि उसके अंदर सब समा जाए। वो ये मानने को तैयार ही नहीं है कि वो किस-किसका दुमछल्लो हुए जा रही है।.
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