आज के नेताओं में एक बात साफ दिखती है कि चिकनी बातों और शब्दों के मायाजाल में वह भरमाने की कोशिश करते हैं। वाकपटुता के सहारे समस्या को ढांपने की कोशिश होती है। अंगरेजी में एक शब्द होता है एसर्टिवनेस यानी किसी भी मुद्दे पर अपनी बातों को पूरी दम-खम से रखना। ९० के दशक में जब भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे पर एसर्टिवनेस दिखाया, तो लोगों में विश्वास जगा, जिसके सहारे भाजपा सत्ता में भी आयी, लेकिन बाद में जब उलट-पुलट बयानबाजी शुरू हुई, तो हारती चली गयी और आज हाशिये पर है। भारतीय नेताओं में सामान्य जानकारियों का जो अभाव नजर आता है, उसमें एसर्टिवनेस का खो जाना महत्वपूर्ण है। राजनीतिक होने के लिए कोई मापदंड नहीं है। कोई ऐसा पैमाना नहीं है, जिसके आधार पर या जिसे पारकर राजनीतिक बना जा सके। जैसे किसी डिग्री या परीक्षा का। सोचने की बात ये है कि जिन लोगों के हाथों में देश चलाने की कमान सौंपी जाती है, उन पर लोग कैसे भरोसा करें। हमें तो वर्तमान समय कलियुग का वह अंधकार काल लगता है, जहां घोर पापी भी आनंद की अवस्था में है। क्योंकि जिनके माध्यम से न्याय की आस जनता लगाए बैठे है, वे खुद ही आत्मविश्वास की कमी के कारण मुंह बंद किए बैठे हैं। चुनाव के पहले जो जिस गरियाते थे, अब अल्पमत में आने के बाद उन्हीं के गुणों का राग अलाप रहे हैं या अलापेंगे। यहीं से विरोधाभास उत्पन्न होता है। आम आदमी कन्फ्यूज है कि क्या किया जाए, किस पर विश्वास किया जाए। हमारा मन भी गड़बड़झाला को सुलझा नहीं पा रहा है। संविधान बनानेवाले विद्वान राजनीतिक आज अगर राजनीतिकों की हालत को देखते, तो सोचते कि ये क्या हो गया? इस सिस्टम के साथ क्या हो रहा है? आम आदमी को ताकत देने की कवायद उसी आम आदमी को कमजोर करने की कवायद में तब्दील हो गयी है। वैसे में दिल्ली में बैठे रिमोट सिस्टम से चलनेवाली पार्टियां कितनी सफल रहेंगी, इस पर ही सवालिया निशान है।
Wednesday, December 23, 2009
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2 comments:
Aapki chinta jaayaz hai.
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2009 के श्रेष्ठ ब्लागर्स सम्मान!
अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
हर चीज की कमी हो रही है, नैतिकता नाम की चिडिया तो लुप्त ही हो गयी, ऐसे में असेर्टिवनेस खत्म हो गयी तो ताज्जुब कैसा.
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