Thursday, January 14, 2010

मेरी जिंदगी, मेरा सेल फोन और मकर संक्रांति





आज आंखें बंद सुखद समृति की तलाश करता हूं। दुखद नहीं। मुझे मेरे होने या न होने का बोध हमेशा भेदता रहता है। सेल फोन है। सेल फोन में कई सौ नाम हैं, लेकिन किसी से भी रिश्ता भावनात्मक नहीं। उन पुराने दोस्तों की सूची खोजता हूं, जो किशोरावस्था में लीची और आम की चोरी जैसी छोटी वीरतापूर्ण घटनाओं में साथी रहते थे। उनका रूठना, डांटना और साथ दौड़ लगाना जिंदगी को छूने का एहसास करा जाता था।


बगल के आम बगान में आम का मज्जर आने के साथ ही उसकी पूरी उपज पर आंखें गड़ी रहती थी। कब आनेवाले दिनों में कच्चे आमों को नमक के साथ खाया जाए। बगल की दद्दी का पूरी कॉलोनी के लोगों को गरियाना दिल दहला जाता था, लेकिन उसके साथ बदमाश लड़कों का वो हुजूम भी याद आता है, जो खींसे निपोर कर दांत बाहर निकाल देते थे। 


तब न ये सेल फोन था, न टीवी के इतने चैनल, न इतनी हाइटेक मनोरंजन की चीजें। मटरगश्ती करते हुए टायर चलाना याद आता है।


सेल फोन पटक कर रख देता हूं। गुस्साते, झल्लाते.... क्योंकि उनमें वो नाम नहीं, जो बीते दिनों में साथ थे... मैं खुद को अपराध बोध से ग्रस्त पाता हूं। तरक्की की दौड़, तरक्की की भूख ने मेरे सारे सच्चे दोस्तों को दूरकर दिया। जो हैं, वे सिर्फ नौकरी में रहते हुए दोस्त हैं। जिन्हें दोस्त, सच्चा दोस्त मानता हूं, उन्हें दो पल की फुर्सत नहीं।  


चैट करते हुए मुंबई के दोस्त बताते हैं कि आज मकर संक्रांति है, लेकिन क्या करें, चूड़ा-दही कोई खिलानेवाला नहीं मिलता। कहा-खुद खाओ, खिलाओ, कौन आएगा? आज की जिंदगी को मौज में बिताओ। यही बात सबसे कहता फिरता हूं। सबसे, सारे लोगों से कि आज की जिंदगी को मस्त कर बिताओ। लेकिन ये मस्ती कहां से आए?  


मैं दार्शनिक अंदाज छोड़ना चाहता हूं। मैदान में दौड़ लगाना चाहता हूं। कुछ दोस्तों के साथ ठहाके लगाना चाहता हूं। इसी चाहत ने समय को मार दिया। समय बीत चला है। मैं क्या करूं..? क्या सारी जिंदगी इसी चूहा दौड़ में लगा दूं? 


मेरा खुद से बेबाक होता जाना क्या दर्शा रहा है? जो भी हो, फिर से उन पुराने दोस्तों को जुटाना पड़ेगा। फिर से नये सिरे से रिश्ते गढ़ने होंगे। शायद यही करना होगा। इसी बहाने मकर संक्रांति पर गांव फोनकर खरमास बीत जाने और देसी नये साल के शुरू होने की बधाई देना नहीं भूलता। 


रिश्तों को नया करने की पहल ये भी है। सेल फोन इस मायने में मेरा सबसे नजदीकी दोस्त लगता है। मेरा सेल फोन। ये अहसास होने पर अब मैं उसी सेल फोन को, जिसे सामने झल्लाते हुए पटक दिया था, निहारता हुआ उठाकर सही होने के लिए जांचता हूं। गड़बड़ाया नहीं है। ठीक है। लो रिंग भी आ गया... मैसेज की भरमार है.... लेकिन कोई दोस्त खाने नहीं आ रहा है।

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सही लिख रहे हैं अब समय नहीं रहा लोगों के पास.

विनीत कुमार said...

आपने लिखा..सेल फोन में कई सौ नाम हैं, लेकिन किसी से भी रिश्ता भावनात्मक नहीं। जब भावनात्मक रिश्ता ही नहीं है तो फिर मुझे फोन करके इतनी दूर से कैसे पूछा कि दही-चूड़ा खाया कि नहीं। मैं आपके इस फोन को किस रुप में लूं जो आप मुझसे महज बोलने-बतियाने के लिए करते रहते हैं। जबकि आपको भी पता है कि मैं उस हैसियत में नहीं हूं आपके काम आ सकूं।.मैंने तो न कभी आपके साथ टायर चलाया है,न ही आम के मंजरों पर आंखों की जोड़ी बनाकर टकटकी लगाया है। छ साल रांची में रहने पर भी कभी जाना तक नहीं एक-दूसरे को। बस यही डोर न कि आपका लिखा मुझे अच्छा लगता है और मेरा लिखा आपको।..फिर आपने फोन किया औऱ मैंने इधर आपका नंबर सेव किया।..और फिर ये एक सिलसिला सा बन गया। इसलिए कम से कम आप ये तो न हीं कहें कि इन नंबरों में कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं है। नहीं तो मुझे आपके हर फोन के बाद माथापच्ची करने होंगे कि आपने क्यों किया? जीवन में कुछ चीजें तर्कों से परे होते हैं,कारणों से परे होते हैं। आपसे मेरी जब भी बात हुई,आपकी बातों से कभी नहीं लगा कि आपने कोई स्ट्रैटजी के तहत फोन किया है,बस यही लगा कि बात करने के लिए किया है। इसे आप भावनात्मक खाते में मेरी तरफ से डाल लें।
और पुराने संबंधों के दुबारा न मिलने पर स्यापा करने के बजाय नए संबंधों में पुराने संबंधों की तासीर खोजने की कोशिश करें। यकीन मानिए तब ये नए संबंध भी आपको सालों पुराने लगेंगे।.

Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive