हजारीबाग से एक खबर है। खबर छोटी सी है। युवा बिरहोर नसबंदी या बंध्याकरण कराना चाहते हैं। छोटा परिवार चाहते हैं, लेकिन सरकार की उनकी जनसंख्या बढ़ाने की नीतियों ने उनके प्रयास को विफल कर रखा है। कई बंदिशें हैं, जिस कारण चिकित्सक कोई खतरा नहीं लेना चाहते। बिरहोर एक आदिम जनजाति है और उनकी आबादी घट रही है।
जंगल में रहनेवाली इस आदमी जनजाति की नयी पीढ़ी समझदार है। वे समझते हैं कि जिंदगी क्या है? कैसी है? वे अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए छोटा परिवार चाहते हैं। लेकिन जब अस्पताल जाते हैं, तो उन्हें भगा दिया जाता है। वे निराश हैं। हालात ये हैं कि एक-एक बिरहोर दंपति को नौ-दस तक बच्चे रहते हैं। खाने-पहनने को कपड़े नहीं रहते। हालत बदतर रहती है। ऐसे में युवा दंपति जब हालात बदलने की कोशिश करते हैं या कर रहे हैं, उन्हें निराश होना पड़ रहा है। सवाल ये है कि इससे इनके व्यक्तिगत जीने के अधिकार का हनन नहीं हो रहा?
क्या आदिम जनजाति को बचाने के नाम पर जो ये कड़े नियम बनाए गए हैं, क्या उनका दुष्प्रभाव झेलना इनका भाग्य या नियति है? हमारे नीति नियंताओं ने शुरुआती दौर में समाज को कई वर्गों में विभाजित कर दिया था। ये वह दौर था, जब विकास हो रहा था। आज जब मीडिया और दूरसंचार की प्रगति ने हर जानकारी मुहैया करा दी है, तो ये सवाल लाजिमी है कि वर्गों में बंटे समाज को कितने दिनों तक सुविधाभोगी, अल्प सुविधाभोगी, संघर्षरत या दबे-कुचले समुदाय में बांट कर रखा जा सकेगा। देश की प्रगति से तो हर वर्ग लाभान्वित हो रहा है।
कुछ दिनों पहले राहुल गांधी ने दबे-कुचले लोगों को खास वर्ग में रखने पर सवाल उठाये थे। क्या जो उच्च वर्ग का गरीब है, हाशिये पर है, वह प्रगति के लिए उन सारे नियमों या सुविधाओं को पाने का हकदार नहीं, जो दूसरे वर्ग के दबे-कुचले लोगों के लिए है।
वैसे ही सरकार के बिरहोरों की आबादी बढ़ाने के नियमों से बिरहोर जैसी विलुप्तप्राय आदिम जनजाति के लोगों के जीने के अधिकार या स्वतंत्र जीवन के अधिकार का हनन नहीं हो रहा है?
विकास के क्रम में कई सारे सवाल हैं, जो धीरे-धीरे सामने उठ रहे हैं। इस पर भी समाज के चिंतकों को गंभीर होकर सोचना होगा। समाज में जीने का समान अधिकार मिले, ये सबसे अहम है। गरीब, अमीर, ऊंचा, नीचा ये सब वर्गीकरण निरर्थक है।
पूंजीवाद के इस गहन दौर में ऐसा चिंतन बेकार है, लेकिन जब पूंजी का प्रवाह समान स्तर पर हो, या होने को हो, तो फिर पूंजी के सही बंटवारे, जीने का समान आधार सबको मिलना चाहिए। यही समय की मांग भी है।
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