Tuesday, January 19, 2010

मैं माओवाद को नहीं जानना चाहता


मैंने एक पोस्ट लिखी, फेसबुक और नक्सलवाद फंतासी। मैं विस्मित था। मुझे मार्क्स की थ्योरी पढ़ने को कहा गया। माओवाद को सर्वहारा वर्ग का संघर्ष कहा गया। मैं माओवाद को नहीं जानना चाहता और न ही इतिहास को जानने की चेष्टा होती है, लेकिन यथार्थ में अपने आसपास घट रही घटनाओं से विचलित जरूर हूं। नक्सलवाद को फंतासी के नजरिये से देखनेवाले शायद पं बंगाल में राजधानी को रोके जाने की घटना को भूले नहीं होंगे। गरीब गुरबों की आड़ में सुनियोजित प्रहार का ये तरीका खतरनाक है। आखिर जंगल राज कायम करके किस स्तर का विकास मिलेगा, सोचिये। गुरिल्ला लड़ाई का स्याह पहलू ये है कि सेना भी इसके आगे पंगु हो जाती है। जंगल में छिपकर वार करते हैं नक्सली। अकेले झारखंड में निर्माण से लेकर अब तक सैकड़ों सिपाहियों की मौत नक्सली हिंसा में हो चुकी है। चुनाव में हिंसा का तांडव मचाकर नक्सली मतदान प्रक्रिया को बाधित करते हैं। ऐसे में उनके संघर्ष को कैसे जायज माना जाए। आश्चर्य ये सोचकर होता है कि सुसंपन्न लोग महानगरों में बैठकर कैसे एक नजरिया, यूं कहें फिल्मी नजरिया पाल लेते हैं। सिस्टम में कायम भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह खोलने से भागनेवाले लोग ही बंदूक उठाकर संघर्ष करने पर जोर देते हैं। ये एक सुनियोजित ब्रेन वाश की साजिश लगती है, जिसमें बुद्धिजीवी तबका ही योगदान देता मालूम पड़ता है। जब छोटे-छोटे दूधमुंहे बच्चे नक्सली हिंसा का प्रकोप झेलते मिलते हैं, तो मन कांप उठता है। नक्सल विचारधारा एक माइंडसेट है, जिसका सबसे खराब रूप उसकी हिंसात्मक कार्रवाई है। नक्सली रोड नहीं बनने देते, विकास कार्य नहीं होने देते और मुखबिरी का आरोप लगाकर आम जन की हत्या की घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं। ऐसे में विकास का सपना कैसे पूरा होगा? कम से कम झारखंड-बिहार जैसे राज्य में, जहां नक्सली हावी हैं, ये कठिन मालूम पड़ता है।

3 comments:

दीपक 'मशाल' said...

Vichaarneeya pahloo..
Vasant Panchmi ki shubhkamnayen.
Jai Hind...

Arun sathi said...

गोपाल कुमार झा की ब्लॉग आइये करें गपशप पढ़ने के बाद माओवाद पर टिप्पणी
उर्फ
आइये आप भी नक्सलियों को गली दें...........
आदरणीय गोपाल जी
चलिए अच्छा हुआ आप माओ को नहीं जानते,`या फिर जानन नहीं चाहते´ जानते होते तो आज माओवादियों को भी जानते। माओवाद इतिहास नहीं यह आपका वर्तमान है। पर आंख की रौशनी कम हो और उसपर पूंजीवाद का चश्मा हो तो दिखेगा भी वही, इसलिए इसमें आपका कोई दोष नहीं। आपको राजधानी को बंगाल में रोका जाना दिखता है और मैं देखता हूं कि राजधानी को हथियारबन्द नक्सलियों के द्वारा रोके जाने के बाद भी किसी यात्री के साथ बदतमीजी तक नहीं करना, वह भी उस राजधानी रेलगाड़ी में जिसमें समाज का वह वर्ग यात्रा करता है जिसकी एक यात्रा खर्च कथित नक्सलबादियों का पूरा परिवार एक माह पलता है। आपको पुलिस वालों को मारा जाना दिखता है पर मैं जो देखता हूं वह है पुलिस का अत्याचार। रोज रोज पुलिस थाने में आम गरीब आदमी को थाने में उठा कर लाया जाता है और कानून को ताक पर रख डण्डे की जोर से हजारों नज़राना वसुला जाता है। मुझे याद कि कुछ साल पूर्व मैं रेल यात्रा के क्रम में पटना से लौट रहा था तभी कुछ लोग रेलगाड़ी पर अखबार में नक्सलियों के द्वारा पुलिस कि की गई हत्या की खबर पढ़ रहे थे और उनके मुंह से निकल रहा था ठीक ही हुआ कोई तो है जो उनको भी सजा दे सकता है। आपको नक्सलवादियों के द्वारा लोगों को मारा जाना दिखता है और मैं जो देखता हूं वह है गरीबों पर दबंगों को अत्याचार का। मैंने अभी हाल ही समाचार संकलन के क्रम में पहाड़ों में काम करने वाले मजदूर का रिर्पोट अपने चैनल के लिए बना रहा था और उसी क्रम में एक मजदूर चन्द्रश्वर मांझी ने एक गीत गाया जो यहां रख रहा हूं भले ही महानगरों बैठे लोग मेरे इस विचार से सहमत नहीं होगों और आदमी की हत्या को जायज नही ठहरायेगे और मैं भी इसे जायज नहीं ठहराता पर जब किसी की पेट की रोटी कोई छीन ले, जब कोई कंकीट के उंचे महल मेें रहे, जब किसी के बहन-बेटी की आबरू लूट ले, और जब कोई किसी के मुंह में मजदूरी मांगने पर मूत दे तो कोई क्या करेगा। हां यह बात भी सच है कि आज माओवाद के नाम पर देश को तोड़ने वाली शिक्यां भी काम कर रही है पर परमाणु के अविष्कार का भी नाकारात्कम पहलू है। ओर फिर आज लोग नक्सलवाद को बीमारी मान रहें है। उन सज्जनों को मैं बता दूं कि नक्सलवाद बिमारी नहीं है बल्कि बीमार समाज का धोतक है और हम सभी बिमारी के ईलाज के बजाया बीमार को ही मारने की बात करते है।
यह रही मांझी की कविता........................
साबुन सेंट बहार सिनेमा, खुश्बू इतर गुलाब की, बिछल फरस पर होवे मुजरा, देखे मालीक टहल टहल, महल करे है चहल पहल, झोपरिया है सुनशान पड़ल, झोपरिया में धरल डीबरिया तेल के बन्दोवस्त नहीं, महल झरोखे बरे बिजरूया, झोपरिया है अंधार परल।

और भी कुछ था जो मुझे याद नहीं पर अन्त में था

न मरव हम बिना रोटी और न मरव हम भूख से
मरना है तो मरजायेगें सरकारी बन्दूक से........................
उस देश की बारे में सोचे जहां देश की पूंजी का 25 प्रतिशत 100 लोगों के हाथ में है। उस देश के बारे में सोचे जहां देश की 45 प्रतिशत आबादी की मासीक आय 450 रू0 है।............
लाल सलाम

दीपक कुमार said...

साथी जी, पुलिसिया अत्याचार का जबाव नक्सली अत्याचार नहीं है. यदि आप के विचारों का समर्थन किया जाये तो कम से कम नब्बे प्रतिशत अर्थात सौ करोड़ लोग नक्सली बन जायेंगे और उस समय क्या हाल होगा. बात यह नहीं है कि यहां लिखने वाले लोग इस दुर्व्यवस्था के पक्ष में हैं लेकिन इस दुर्व्यवस्था का सही प्रतिउत्तर क्या है. यह सही है कि पुलिस भी अत्याचारी है बल्कि कई मामलों में तो आसुरी प्रवृत्ति साक्षात दिखाई दी है लेकिन उसके चलते आतंकवाद को फैलाना जायज है क्या. पूंजीवाद कभी खत्म नहीं हो सकता. भारतीय समाजवादी और मार्क्सवादी नेताओं को देखिये जो खुद उद्योगपति बनते जा रहे हैं. जिन्हें आप पूंजीपति देश कहते हैं वे कई मायनों में मार्क्स और माओ से अच्छे हैं. मार्क्स के गढ़ कहे जाने वाले प्रान्त के क्या हाल हैं किसी से छुपे नहीं हैं.

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