Sunday, January 31, 2010
गाली मत दो मेरे भाई..
किसी को जमकर गरियाना रोमांचित करता है। गरिया दीजिए, हिट हो जाइयेगा, लोग हड़कने लगेंगे। आज एक चैनल पर इन्हीं गालियों को आधार बनाकर बनायी जा रही फिल्मों पर बहस चल रही थी। बहस में वक्ताओं ने कहा कि फिल्में तो हमारी माइंड सेट को परिभाषित करती है। आम जनता की जो माइंड सेट है, वही फिल्में दिखाती हैं। जब पहली बार फूलन देवी पर बनी फिल्म देखी थी। तो समाज के विद्रुप चेहरे को दर्शाया गया था। जिस सभ्य समाज की आप कल्पना करते हैं, उससे अलग। उसमें गालियों के महासमुद्र को देखकर मन कांप उठा था। सच कहूं, तो रात में भी नींद नहीं आती थी। नफरत के हिसाब से गाली का लेवल भी बढ़ता चला जाता था। अंदर के भड़ास को निकालने का अंतिम हथियार गाली है। जिसके बाद आपके पास सिर्फ हाथ उठाना बाकी रह जाता है। सेक्सुअलिटी से लेकर भाषाई अभद्रता के मामले में क्या भारतीय समाज इस हद तक खुल गया है कि जिन शब्दों को हम-आप अब तक खराब मानते आ रहे हैं, वे संवादों के माध्यम से हमारी पीढ़ी देख-सुन रही है। बहस में भाग लेनेवाले वक्ता कहते हैं कि ये जो ट्रेंड पनप रहा है, उसमें रिसर्च होना चाहिए। औरतें मर्दाना अंदाज में गालियां देने लगी हैं। इस पर रिसर्च होना चाहिए। गाली पूरे समाज को परिभाषित करती है।
अबे, साला तक तो मामला चलता था। एक हद तक लोग किसी को हरामी भी कह देते थे। लेकिन यहां मामला उससे आगे कुछ आगे चला गया है। फिल्मकार आम आदमी के दिमाग से सोचने की कोशिश करते हुए शायद उस खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं, जहां एक खुलापन है, जो अब तक दैहिक लालसा को लिये था, लेकिन अब उसमें शब्दों के चयन में खुलापन को स्वीकार कर लिया गया है। हमारे कान अब लाल नहीं होते।
हम-आप चाय पीते हुए नायक को गालियां बकते हुए देखना पसंद करते हैं। इश्क के नाम पर, भड़ास के नाम पर, करप्शन के नाम पर, सोसाइटी की खराब हालत के नाम पर गालियां दी जाती हैं। शायद ये वह भी मोड़ है, जहां कोई रास्ता नहीं निकलता देखकर हम मन के निचले बीमार स्तर को गालियों के ओवर डोज की मदद से राहत पहुंचाने की कोशिश करते हैं। वैसे गरियाने का ये भी फायदा होता है कि आप लाइम लाइट में आ जाते हैं। भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही।
अब एक फिल्म को ही देखिये। थिएटर में आयी नहीं कि गालियों के कारण चर्चा में है। शायद...। अब गालियों के सहारे जब रचनात्मक काम किया जा रहा हो, तो वह रचनात्मक कितना असल रूप में है, ये भी देखने लायक होगा।
अब गाली में ग्लैमर घुस गया है। गजब का ग्लैमर। हिन्दी मीडियम में थे, तो अंगरेजी में गाली देनेवाले को सोचते थे कि बड़ा पढ़ा-लिखा है। अब जब हिन्दी की गालियों को फिल्मों के जरिये हिट कराया जा रहा है, तो निश्चित रूप से इसका प्रचलन बढ़ेगा ही और अंगरेजी की गालियों से ज्यादा हिन्दी वाली गालियों का होगा। देखते हैं.. क्या होता है।
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1 comment:
श्रीमन अभी अभी मैंने एक लेख पर जो लिखा है वही फिर लिख रहा हूं कि इन का बस चले तो आदमी के बेडरूम में कैमरा लगा लाइव टेलीकास्ट करें.
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