Monday, January 11, 2010
स्वामी विवेकानंद और आज की दुनिया
बचपन से विवेकानंद एक चमत्कारिक पुरुष के रूप में मन में कैद हैं। एक ऐसे युवा के रूप में जिन्होंने देश के युवाओं की मन की धार को बदल कर रख दिया था। उनकी क्रांतिकारी सोच प्रहार करते हुए सोचने के लिए मजबूर करती है। गौर करें, तो आजादी से पहले विवेकानंद या अन्य, जिन्हें भी हम महान लोग कहते हैं, देश के स्तर पर सोचते थे। कहते थे कि भारत, अखंड भारत को विश्व का सिरमौर बनाना है। आज की टुच्ची राजनीति से इतर वे देश को महान बनाने की बात करते थे। जब आज की प्रैक्टिस की राजनीति देखते हैं, तो लगता है कि वे कैसे आज की इस राजनीति में जिंदा रहते या अखंड भारत के निर्माण की बात करते। विवेकानंद कई सवाल छोड़ गए थे। धर्म की व्याख्या कर उन्होंने नयी बहस छेड़ दी थी, लेकिन आज ६०-७० सालों के बाद वह बहस मुड़कर उसी स्थान पर लौट जाती है, जहां से शुरू हुई थी। क्योंकि उनकी बातों को लेकर कोई ऐसा असर नहीं दिखता। सिर्फ चंद लोगों, किताबों और इतिहास के पन्नों में विवेकानंद की बातें विरासत के तौर पर दबी रह गयी हैं। एक दिन, दिवस के रूप में उनके नाम पर पन्ने रंग दिए जाते हैं। हर महापुरुष, हर जयंती पर यही ढर्रा रहता है। हम पन्ने रंग देते हैं और कर्तव्यों से इतिश्री कर जाते हैं। जब पढ़े-लिखे लोग, पत्रकार लोग, शिक्षक समूह स्वहित की बात करते हुए पूरे देश के कल्याण की बात करता है, तो मुझे ये साफ दिखने लगता है कि इन्हीं में से कोई नया विवेकानंद क्यों नहीं पैदा हुआ। मैं भी आदतन उसी समूह का हिस्सा बन गया हूं। देश कीगरीबी, महंगाई और त्रासदी को लेकर किसी भी नेता के आंसू नहीं निकलते। लेकिन अगर कहीं किसी जगह भीड़ के जुल्म से त्रस्त व्यक्ति के आंसू कैमरे में कैद होते हैं, तो वह बाजार का हिस्सा हो जाता है। इस बाजार में हमारी सोच को मार दिया है। इसी बाजार ने टीआरपी जैसी चीज दी है। जिस पर कि अब खुद वरिष्ठ पत्रकार हल्ला मचा रहे हैं। इसी बाजार ने रोटी मुहैया करायी है, तो इसी ने हमारी सोच को भी मार दिया है। बाजार के बहाने उस सोच, उस विरासत को मत मारिये, जिसके दम पर गर्व की आहें भरकर हम-आप पेट की भूख मिटा रहे हैं। कम से कम जो विवेकानंद को जानते हैं या जानने की कोशिश करते हैं, वे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
यही तो भारतीयों कि मानसिकता है .. सिर्फ चंद लोगों, किताबों और इतिहास के पन्नों में विवेकानंद की बातें विरासत के तौर पर दबी रह गयी हैं। एक दिन, दिवस के रूप में उनके नाम पर पन्ने रंग दिए जाते हैं।
जाने कब उबर पाएंगे हम ??
महापुरुष सिर्फ याद करने के लिये होते हैं
अभी कुछ दशक भारत भौतिकता के पीछे चलेगा। पर्याप्त इकनॉमिक ग्रोथ के बाद विवेकानन्द पर लौटेगा।
यह सब साइकलिक है।
Post a Comment