Sunday, February 7, 2010
पत्रकारिता को फटीचर न कहें..
अगर आप खुद को गरियाएं, तो कुछ गुदगुदी टाइप की मालूम होती है। खुद को गरियाते रहिये, तो टीआरपी भी आप ही बढ़ती जाती है। हमारा मानना है कि हर काल की अपनी विशेषता होती है। आज के दौर के पत्रकार जो कुछ अनुभव लेकर एक पोजिशन पर हैं, जिनका एक रुतबा और जो शिखर से इस प्रोफेशन की ऊंचाई-निचाई को परख और देख रहे है, वे जब इसे फटीचर बोलते और कहते हैं, तो मन में खटकता है। हिन्दी में फटीचर और चिरकुट एक ऐसी अवस्था का द्योतक है, जहां से गिरावट का स्तर अंतिम छोर पर होता है। क्या आज की पत्रकारिता सचमुच फटीचर है? क्या हिन्दी पत्रकारिता में सचमुच वह स्थिति है, जहां हम इसे फटीचर, फालतू और बकवास करार दें। ८० के दौर में जब इतना संसाधन नहीं था, तब की पत्रकारिता में जो कुछ भी था, वह इतना था कि परिवर्तन के दौर को उस समय के पत्रकारों ने कलम के जरिये ज्यादा अभिव्यक्त किया। हम उस दौर में नहीं जाते। मंडल कमीशन के समय से लेकर आज तक जो पत्रकारिता हावी रही है, उसमें एक किस्म की सिमट कर रहने की प्रवृत्ति है। हमारा मानना है कि दिल्ली में बैठकर पत्रकारिता की जिस परिभाषा को तय करने की कोशिशें हो रही हैं, वे क्षेत्रीय स्तर पर बेकार हो जाती हैं। अंचल और ग्रामीण स्तर की पत्रकारिता सही में पत्रकारिता नजर आती है, क्योंकि वहां से कम से कम समस्याओं को अंदर घुसकर जानने की चेष्टा होती है, जबकि दिल्ली या महानगरीय पत्रकारिता में ज्यादातर ग्लैमर का बोध होता है। ऐसी बात नहीं होती है कि वहां से चीजों को जानने की कोशिश नहीं होती, लेकिन पेशेवर मजबूरियां बढ़े हुए हाथों को रोक देती हैं। जब जमीन की छुअन का एहसास नहीं हो, तो साफ ग्लास में पानी पीते हुए खुद के प्रोफेशन को गरिया कर खीझ मिटाना आसान नजर आता है। वहां से पत्रकारिता फटीचर नजर आती है। हम कहते हैं कि पत्रकारिता को फटीचर या फालतू, बकवास जैसे संबोधनों से दूर कर दें। फटीचर तो हम-आप इसे बनाते हैं। अगर पत्रकार होते हुए आपमें जरा सी भी समझदारी है, तो वस्तुस्थिति को सही तरीके से प्रस्तुत करने की पहल जरूर होगी। ब्लाग लेखन को ज्यादातर मायनों में फटीचर होने की श्रेणी में रखा जा सकता है, क्योंकि यहां पर खुद के भड़ास को निकालने का तरीका अपनाया जाता है। फटीचरवाली स्थिति में मस्ती का नशा होता है, क्योंकि यहां खोने के लिए कुछ नहीं होता और पाने के लिए पूरा आसमां। एक पियक्कड़ को जब फटीचर या चिरकुट बोला जाए, तो चलेगा। लेकिन पत्रकारिता कोई पियक्कड़ वाली स्थिति में करने से बचेगा। इसलिए फटीचर शब्द का प्रयोग करना क्या जायज है, सोचिये। ये सवाल सब लोगों से है।
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5 comments:
माना पत्रकारिता के लिए आप सही कह रहे हैं कि उसे फटीचर न कहें, आपका प्रोफेशन है मगर ब्लाग लेखन को ज्यादातर मायनों में फटीचर होने की श्रेणी में रखा जा सकता है, ऐसा भी तो न कहें. क्या फरक है दोनों मे..जो वहाँ पत्रकारों के हाथ में है वो यहाँ ब्लॉगर्स के हाथ में है.
सुध तो खुद ही लेनी पड़ेगी.
बहुत सही कहा है। पत्रकारिता को फटीचर कहने का चलन तो है ही, पर यह चलन कुछ हद तक हम पत्रकारों ने ही चलाया है। पर यहां ब्लॉक स्तर पर पत्रकारिता करते हुए समस्याअों के साथ जुझना और रोज एक नया दुश्मन बना। जो अपने है उनका भी समाचार के माध्यम से दिल दुखाना क्योकि समाचारों से समझौता नहीं करने का अहं भी होता है और तो और घर में बेटा भी बीमार हो तो पहले समाचार संकलन जरूरी होता है। तब भी हम फटीचर कहलाते है। धन्य हैं हमलोग भी...............
फटीचर शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह निन्दात्मक और घृणास्पद प्रस्तुति देता है. बहरहाल न तो ब्लाग लेखन और न ही पत्रकारिता फटीचर कही जा सकती है. लोगों की मानसिकता की बात अलग है.
सो सहमति इस पर बन रही है कि फटीचर वो कहे जो खुद न हो! :-)
इस लिहाज से मुझे पत्रकारिता को फटीचर कहे जाने में कोई परेशानी नहीं है क्योंकि डेढ़ साल मेनस्ट्रीम मीडिया में और अब जो ब्लॉगिंग के डरिए कर रहा हूं वो फटीचरगिरी से मुक्त नहीं है. लेकिन मुझे इस पर न तो अफसोस है और न मैं इसे दुरुस्त करने की दिशा में पहल करुंगा। क्यों,इस पर विस्तार से कभी पोस्ट में।..और हां,प्रभातजी रवीश ने जिस संदर्भ में इसे फटीचर काल कहा है वो पूरी तरह टीवी पत्रकारिता के लिए है और अगर आप न्यूज चैनलों में खबरों की निर्माण प्रक्रिया से लेकर दिखाए जाने तक को जान पाएं तो आपको भी लगेगा कि जब तक इसके लिए दूसरे शब्द न मिल जाएं,इसे फटीचर काल ही कहना बेहतर होगा।..
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