Wednesday, February 10, 2010

हम मीडिया और राजनीति में बच्चों को आने के लिए नहीं कहते..

हमारी जिंदगी के हजारों ख्वाब होते हैं। उन ख्वाबों को पाना मेहनत मांगता है। बचपन में कभी ये न सोचा कि पत्रकार बनेंगे या इस क्षेत्र में हाथ आजमाएंगे। अपनी कहानियों में आइएएस, आइपीएस, कैप्टन या प्रोफेसर-टीचर की नौकरी होती थी। बड़े नामों को अखबारों में पढ़कर जो बोध उभरता था, वह ये था कि बड़े लोग हैं, बड़ी कहानियां या भाषा लिखते हैं। यहां तक कि प्रेमचंद, अमृतलाल, विवेकानंद, गांधी, नेहरू जैसे लोग मानस पटल पर ईश्वर के दूत के रूप में अंकित हो चुके थे। आज भी हैं। उन पर कुछ लिखने से पहले मन सौ बार सोचता है।

हमने राजनीतिक बनने की कभी नहीं सोचा। हमारे यहां जिस व्यक्ति पर सारे देश या कहें शासन प्रणाली को चलाने की जिम्मेवारी होती है, उस जगह पर पहुंचने के लिए बच्चों को प्रेरित नहीं किया जाता। माता-पिता बताते हैं कि अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर या टीचर बन जाओ, लेकिन एक बेहतर राजनीतिक बनो, ये नहीं समझाया जाता। हमें कभी स्कूलों में भी ये नहीं बताया गया कि महान बनने के व्यावहारिक रास्ते क्या हैं? सब कहते थे कि ईमानदार बनो, लेकिन ईमानदारी का पैमाना क्या हो? क्या खुद के प्रति ईमानदारी ही सच्ची ईमानदारी है या त्याग, तपस्या के बल पर दूसरों की सेवा करना। सवालातों के दौर के साथ कई विरोधाभास पैदा होते चले गए। आज जब जीने-मरने के लिए इतनी बंदिशें लागू की जा रही हैं कि दूसरों के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है, तो दूसरे वर्ग की ईमानदारी यानी सेवा, तपस्या, त्याग को क्या अगली पीढ़ी लागू करेगी।

हम आज तक ये सोच रहे हैं कि पत्रकार या राजनीतिक बनने के लिए लोग बच्चों को प्रेरित क्यों नहीं करते? आज राजनीति में आने से पहले बाहुबल और पैसे की जरूरत महसूस होती है। क्या ऐसा पहले भी था? या हमारी पूरी बिरादरी की मानसिकता इसके लिए जिम्मेदार है। हम जो सोचते हैं वही यथार्थ भी होता है। आज का यथार्थ हमें डराता है। मैं अपनी पीढ़ी की सोच को बकवास तो नहीं कहूंगा, लेकिन महा पेशेवर जरूर कहूंगा। क्योंकि जिस वर्ग पर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होती है यानी माडिया और राजनीति, उसी वर्ग को हमारा समाज शुरू से ही तिरस्कृत रूप दे बैठता है। क्या खुद में झांककर हम ये नहीं सोच सकते कि इन क्षेत्रों में जाने के लिए हम अपने बच्चों को क्यों नहीं प्रेरित करते? वैसे आज का टीवी कुछ-कुछ बच्चों को खींचता है। वैसे में जो आपाधापी बच्चों को टीवी की दुनिया में जाने के लिए है, उसमें भी हमारी क्षुद्र मानसिकता काम कर रही है। शायद कम से कम समय में सफलता का लालच।

2 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अब तो दोनों ही बड़े ग्लैमरस हो गये हैं.

विनीत कुमार said...

हम तो कहा करते हैं बच्चों को कि अगर संभव हो तो इनमें से किसी एक में जरुर जाओ।..

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