Sunday, February 14, 2010
बेड़ा गर्क हो इन तथाकथित प्रेम दीवानों का कोई असर नहीं होता
वेलेंटाइन डे बीत चला। इस वेलेंटाइन डे को महामूर्ख दिवस के रूप में मनाने की पहल होनी चाहिए। सच कहें, तो हमें तथाकथित विकसित होने की जुगाली कर रहे और मसीहा बनने की चेष्टा कर रहे लोगों से नफरत होती जा रही है। सधे शब्दों में कहें, तो मुंह देखने की इच्छा नहीं होती। वेलेंटाइन डे क्या आ गया, पटनावाले एक देशभर में नामी प्रोफेसर साहब का इंटरव्यू लेना चैनलवाले शुरू कर देते हैं। हद है यार, और कोई नहीं मिलता क्या। पहले तो प्रेम को लेकर ऐसा कंफ्यूजन क्रिएट किया है कि आधी पीढ़ी पगलायी हुई है इस प्रेम दिवस के नाम पर। संस्कृति के रक्षकों को शेष ३६४ दिन में कभी भी सांस्कृतिक प्रहार नहीं दिखता है, जबकि १४ फरवरी को दिख जाता है। राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए बस एक ही दिन मुद्दा बचता है। इन्हें कौन सा उपनाम दें, इसे लेकर अपना माइंड काम नहीं कर रहा। इस देश की आधी मीडिया को ये नहीं दिखता है कि टूटते समाज और बिखरती संस्कृति के कारण किस कदर बिखराव आ गया है। कोई किसी का ठेका नहीं लेता, लेकिन ये ब्रेन वाश करने का काम भी कोई ठीक नहीं। एक घर, जहां पीढ़ियां बड़ी होकर परिपक्व होती हैं, सिर्फ ईंटों के सहारे नहीं बनतीं, वे प्रेम और समर्पण मांगती है, जो कि बहन, पत्नी, पिता, मां और भाई के रूप में आता है। जवानी के दिनों के प्रथम आकर्षण को इस वेलेंटाइन डे पर ऐसा पत्रिकाओं में भुनाया जाता है कि क्या कहें, मन खिन्न हो जाता है। प्रो साहब को जो सहज प्रचार मिला, वह भी मीडिया की देन है। समाज में फुहड़ता को हमेशा से ज्यादा प्रश्रय मिला है और ये भी उसी का एक अंग है। हम जिस समाज में रहते हैं, वहां बूढ़ों के लिए लोगों के पास समय नहीं है।दूसरी कई समस्याएं हैं। पानी नहीं है। महंगाई चरम पर है। काफी कुछ है। लेकिन बेड़ा गर्क हो इन तथाकथित प्रेम दीवानों का कोई असर नहीं होता। शर्म से पानी-पानी होते हुए पाटी गटकने का काम ही बाकी रह गया है। ये वेलेंटाइन डे सिर्फ बाजार बनाने का हथकंडा है, जिसे लोगों को समझना चाहिए।
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2 comments:
मैं भी यही मानता हूं कि यह बाजार के फंडे हैं. अब तो लगातार चाकलेट, टेडी, रोज और पता नहीं कौन कौन से सात दिन मनाये जाने लगे हैं.
ये वेलेंटाइन डे सिर्फ बाजार बनाने का हथकंडा है, जिसे लोगों को समझना चाहिए।
sach aur satik
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