Monday, February 15, 2010

। वैसे वक्त आ गया है कि भाषणबाजी कम हो और काम ज्यादा।

मीडिया संस्थानों में बैठकर बड़ी-बड़ी बातें लिखने और कहनेवाले कभी-कभी असहाय होती व्यवस्था के खिलाफ मुंह खोल नहीं पाते। पन्नों पर पन्नों को रंग दिया जाता है। गृह मंत्री के बयानों के तहत उत्साह से लबरेज केंद्रीय अधिकारियों का नक्सलियों के खिलाफ अभियान शुरू करने की बात कुछ मानसिक संबल जरूर प्रदान करती है, लेकिन समय के साथ खुद कई गुटों पर बंटी राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष उठते कदम बेअसर लगते हैं। झारखंड में दो-चार रोज पहले बीडीओ को अगवा कर लिया गया। यहां हम जिन अधिकारियों के माध्यम से व्यवस्था को लागू करके विकास का सपना देखते हैं, वे असहाय हैं। उनके समक्ष भी सुरक्षा की समस्या है। ऐसे में कोई काम कैसे होगा, ये सोचिये। थानों में पुलिस बल रणनीति और योजना के अभाव में सिर्फ नौकरी के लिए टिके रहते हैं। बुनियादी स्तर पर जो सोच चाहिए, उसे लेकर कोई गंभीर सवाल नहीं हो रहे। एक-एक कर झारखंड में आर्थिक तौर पर उठे कदम पीछे खींच लिये जा रहे हैं। जैसे टंडवा में पावर प्लांट लगाने की योजना के मामले में हुआ। यहां चतरा के टंडवा में १९८० मेगावाट का पावर प्लांट बैठाने की केंद्रीय योजना दस सालों के बाद सिर्फ ये कहकर स्थानांतरित कर दी गयी है कि जमीन के नीचे कोयले का प्रचुर भंडार है। सोचिये, दस सालों के बाद। हाशिये पर जाता ये पूरा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, किस विकास की राह पर है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता। पं बंगाल में माओवादियों के नाम पर हो रही राजनीति ने बुरा हाल कर रखा है। कल माओवादी हमले में दस से ज्यादा पुलिसकर्मी मारे गए। कभी-कभी लगता है कि पूरा सिस्टम भगवान ही चला रहे हैं। हमारे या हमारी सरकार के हाथ में कुछ भी नहीं है। ये पूरा सिलसिला क्या एक दिन में पनपा? या ये घटनाएं सिर्फ कुछ कारणों की उपज हैं। नहीं। यहां के राजनीतिक विकास के मायने को लेकर कभी गंभीर नहीं रहे। उनके पासे ऐसा कोई एजेंडा नहीं है, जिसके सहारे वे एक ठोस कार्ययोजना तय कर सकें और जिस पर काम हो। प्रशासनिक ढांचे के निचले स्तर पर जो डर-भय का माहौल है और जिस असुरक्षा के बीच अधिकारी-कर्मचारी काम करने को मजबूर हैं, उस पर भी गौर करना जरूरी है। वैसे वक्त आ गया है कि भाषणबाजी कम हो और काम ज्यादा।
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