मुझे हिन्दी के उत्थान की बात करनेवालों को देखकर हंसी आती है। तरस आता है। उन पर हंसी आती है, जो ये कहते हैं-हिन्दी हमारी भाषा है, हमें इसकी तरक्की में योगदान देना चाहिए। इतने किताब, इतनी रचनाएं आलमारी में पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं, उन्हें देखने की फुर्सत नहीं। पुस्तकालयों का हाल बेहाल है। उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। अखबारों में अशुद्धियों की भरमार है, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। चैनलों में गलत वाक्य और भाषा का इस्तेमाल हो रहा है, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। जो माध्यम, जो चीजें ज्यादा हिन्दी के प्रसार में योगदान कर सकती हैं, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं है और हम हिन्दी में ब्लाग लिखकर भाषा उत्थान का स्वप्न देखने लगे हैं। ये कड़वा सच है कि हम सिर्फ यहां गप्पे हांकने, अपने अहं की तुष्टि करने और टाइम पास के लिए उपस्थिति दर्ज कराते हैं। मैं जो बातें कहूंगा सच कहूंगा, हम हिन्दी के प्रसार में कोई योगदान नहीं देते। ये तो गुगल महाराज की कृपा है कि हिन्दी में टिपिया रहे हैं, नहीं तो बस अंगरेजी को देखकर आहें भरते। हिन्दी तरक्की आप करेगी, जब तकनीक साथ देगी। भाषा सिस्टम के लिहाज से बड़ी होती है। अंगरेजी विकसित हुई, क्योंकि ये शासकों की भाषा थी। फ्रेंच भी कमोबेश, इसलिए दुनिया में फैली। यहां क्यों हिन्दी भाषा के उत्थान के नाम पर आसुरी विलाप करें। हमें तर्क शक्ति का प्रयोग अच्छा लगता है। इंटेलेक्चुअल आतंकवाद के बहाने जिस प्रकार की बहस हुई, उससे काफी सारे निष्कर्ष निकल कर आये। सबसे बड़ा निष्कर्ष ये है कि हिन्दी ब्लाग जगत में बहस की गुंजाइश बची है। इसलिए भाषा के बहाने मंथन को रोके नहीं। जब संघर्ष होगा विचारों का, तो मोती आप निकलेंगे। गलत वाक्य लिखिये या शब्द, लेकिन तर्क करिये, वही जरूरी है। तर्क से परे दर्शन की बातें करना पैर पर कुल्हाड़ी मारने के जैसा है। इसलिए इस ब्लाग जगत को उस बंधन से मुक्त करें। वैसे इंटरनेट की दुनिया में भाषा का महासमुद्र मौजूद है, वहां से जिसे हीरे निकालना होगा, वह खंगाल कर निकाल लेगा।
Sunday, February 21, 2010
हिन्दी के उत्थान की बात करनेवालों को देखकर हंसी आती है...
मुझे हिन्दी के उत्थान की बात करनेवालों को देखकर हंसी आती है। तरस आता है। उन पर हंसी आती है, जो ये कहते हैं-हिन्दी हमारी भाषा है, हमें इसकी तरक्की में योगदान देना चाहिए। इतने किताब, इतनी रचनाएं आलमारी में पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं, उन्हें देखने की फुर्सत नहीं। पुस्तकालयों का हाल बेहाल है। उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। अखबारों में अशुद्धियों की भरमार है, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। चैनलों में गलत वाक्य और भाषा का इस्तेमाल हो रहा है, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं। जो माध्यम, जो चीजें ज्यादा हिन्दी के प्रसार में योगदान कर सकती हैं, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं है और हम हिन्दी में ब्लाग लिखकर भाषा उत्थान का स्वप्न देखने लगे हैं। ये कड़वा सच है कि हम सिर्फ यहां गप्पे हांकने, अपने अहं की तुष्टि करने और टाइम पास के लिए उपस्थिति दर्ज कराते हैं। मैं जो बातें कहूंगा सच कहूंगा, हम हिन्दी के प्रसार में कोई योगदान नहीं देते। ये तो गुगल महाराज की कृपा है कि हिन्दी में टिपिया रहे हैं, नहीं तो बस अंगरेजी को देखकर आहें भरते। हिन्दी तरक्की आप करेगी, जब तकनीक साथ देगी। भाषा सिस्टम के लिहाज से बड़ी होती है। अंगरेजी विकसित हुई, क्योंकि ये शासकों की भाषा थी। फ्रेंच भी कमोबेश, इसलिए दुनिया में फैली। यहां क्यों हिन्दी भाषा के उत्थान के नाम पर आसुरी विलाप करें। हमें तर्क शक्ति का प्रयोग अच्छा लगता है। इंटेलेक्चुअल आतंकवाद के बहाने जिस प्रकार की बहस हुई, उससे काफी सारे निष्कर्ष निकल कर आये। सबसे बड़ा निष्कर्ष ये है कि हिन्दी ब्लाग जगत में बहस की गुंजाइश बची है। इसलिए भाषा के बहाने मंथन को रोके नहीं। जब संघर्ष होगा विचारों का, तो मोती आप निकलेंगे। गलत वाक्य लिखिये या शब्द, लेकिन तर्क करिये, वही जरूरी है। तर्क से परे दर्शन की बातें करना पैर पर कुल्हाड़ी मारने के जैसा है। इसलिए इस ब्लाग जगत को उस बंधन से मुक्त करें। वैसे इंटरनेट की दुनिया में भाषा का महासमुद्र मौजूद है, वहां से जिसे हीरे निकालना होगा, वह खंगाल कर निकाल लेगा।
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10 comments:
इतने बेबाक सत्य को सामने रखने का किसी ने साहस तो किया, देखना हैं अन्य विज्ञजनों की क्या राय बनती है ।
खुद के गिरेबाँ में इस कदर न झाँक कि वह तार तार हो जाये ... शायद इसी डर से लोग उधर नज़र फेरने से भी बचते हैं
किन्तु एक शिकायत भी है, यदि आप थर्ड-पार्टी नज़रिये से अपने को हिन्दी से अलग नहीं समझते तो आख़िर आप किस पर और क्यों हँस रहे हैं ?
यह भी एक कटु सत्य यह भी है कि, अशुद्धता के स्तर तक उतर कर सही, हिन्दी अगँभीर साहित्य के चलते ही बची-खुची रह पायी है । वरना अकादमी वाले, राजभाषा के निविदाधारक, स्वनामधन्य नीति नियँताओं ने इसे जनता के पहुँच से दूर ले जाने के प्रयासों में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी ।
वैसे इंटरनेट की दुनिया में भाषा का महासमुद्र मौजूद है, वहां से जिसे हीरे निकालना होगा, वह खंगाल कर निकाल लेगा.
भाषाएँ, मुझे नहीं लगता कि सेवा से चलती हैं...तमिल आज भी विश्व की सबले 'प्राचीन लेकिन बोले जानी वाली' भाषा है, इसके लिए किसी ने कोई नीतिबद्ध कार्य नहीं किया है...
हिंदी भी स्वतः अपने दम पर ही विकसित होती आई है व इसका विस्तार भी जारी है...यह बात दीगर है कि इसका स्वरुप बदलता आया है और यह प्रक्रिया जारी भी है ... मुझे यह भी नहीं लगता कि हिंदी को कोई खतरा है...बल्कि मैं तो यह देख रहा हूँ कि परिवारो में अपनी मातृभाषा तक छोड़ हिंदी बोलने का चलन बढ़ रहा है...पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी बोलने वालोँ की गिनती अंगुलीयोँ के पोरो पर की जा सकती है और इनसे हिंदी डरती भी नहीं है....
ये बात दीगर है कि हिंदी में अपनी बात आसानी से व सुसंस्कृत तरीके से कह सकने वाले लोग इस भाषा से जुड़ाव महसूस करते हैं...लेकिन यही स्थिति कमोवेश सभी भाषाओं कि है...
"हिन्दी ब्लाग जगत में बहस की गुंजाइश बची है। इसलिए भाषा के बहाने मंथन को रोके नहीं। जब संघर्ष होगा विचारों का, तो मोती आप निकलेंगे। गलत वाक्य लिखिये या शब्द, लेकिन तर्क करिये, वही जरूरी है." इन पंक्तियों ने सब कुछ कह दिया.
लेकिन तर्क करिये, वही जरूरी है aameen
बात मे दम है।ईमानदारी और सच को तो सलाम करना ही पड़ेगा।आपकी बेबाकी के कायल हैं हम।
काजल कुमार बढ़िया कह रहे हैं!
"गलत वाक्य लिखिये या शब्द ..."
क्या जान बूझकर गलत वाक्यों और शब्दों का प्रयोग करना भी सही है? अहिन्दीभाषी का गलत वाक्य और शब्द प्रयोग करना तो एक बार समझ में आता है पर हिन्दीभाषी के द्वारा भी गलत शब्दों के प्रयोग को क्या कहा जा सकता है?
काजल कुमार जी ने सही कहा है....
बिल्कुल सही कहा आपने , कहने मात्र से कु नहीं होता , जब तक हम खूद उसका पालन नहीं करेंगे कुछ नहीं होगा ।
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