Saturday, February 27, 2010

हिन्दी-अंगरेजी में बंटी मीडिया बजट को दो नजरिये से देखता है, तो ये आम नागरिक के साथ बड़ा अपराध कर रहा है,

रविश फेसबुक पर सवाल उठाते हैं कि अंगरेजी के अखबार प्रणव मुखर्जी के बजट की सराहना करते हैं, वहीं हिन्दी अखबार महंगाई और आम जनता के पक्ष में खड़े हैं। रविश यहां ये सवाल खड़ाकर खुद विभाजित हो गयी मीडिया को लेकर सीधा सवाल कर रहे हैं। पूरी हिन्दी मीडिया आम जनमानस को लेकर चिंतित रहती है। आज की मीडिया हिन्दी और अंगरेजी को लेकर विभाजित क्यों है? आज तक पत्रकारों को सिर्फ पत्रकार होने के नजरिये से क्यों नहीं देखा जाता। आप माने या न माने, लेकिन हिन्दी और अंगरेजी के पत्रकारों के बीच एक बड़ी लकीर खींची नजर आती है। कभी-कभी लगता है कि वह एक पूरी अलग बिरादरी है। हम कहते हैं कि अंगरेज गये, तो लेकिन अंगरेजियत छोड़ गये। लेकिन इसके साथ हमारी अपनी मानसिकता क्यों नहीं बदली? हम हिन्दी के होते हुए अंगरेजी के साथ उस रफ्तार से क्यों नहीं भाग पाते हैं। हिन्दी समर्थक होते ही हम संस्कृति के पुरजोर समर्थक बन जाते हैं। हमारे आगे-पीछे की दुनिया बदल जाती है। जहां तक मेरा मानना है कि जब आप अंगरेजी के दायरे में होते हैं, तो आपमें एक गंभीरता खुद ब खुद आ जाती है। आप उस सुपीरियॉरिटी कांप्लेक्स के शिकार हो जाते हैं, जिसके सहारे एलिट होने का अहसास होने लगता है। चैनलों पर बहसों के स्तर को देखिये। जो स्तर अंगरेजी के चैनलों पर मिलेगा, वह स्तर हिन्दी के चैनलों पर नहीं मिलेगा।
जैसी भागीदारी अंगरेजी के चैनलों पर बहस में मिलेगी, वैसी भागीदारी हिन्दी के चैनलों या अखबारों में नहीं मिलेगी। जैसा कि कहीं से पता चला कि अंगरेजी के बहसवाले कार्यक्रमों की टीआरपी हिन्दी के ऐसे कार्यक्रमों से ज्यादा होती है। अब जब शहरी आबादी की संख्या बढ़ी है, लोग गांव छोड़ चले हैं, तो हिन्दी मीडिया जड़ की तलाश कर रहा है। हिन्दी मीडिया गरीब, किसान और पिछड़ेपन की बात करता है, लेकिन अंगरेजी मीडिया को उसकी जरूरत महसूस नहीं होती। क्योंकि उसके खरीदार या उपभोक्ता थोड़े ऊंचे वर्ग से आते हैं। ऐसे में सवाल ये है कि अगर हिन्दी-अंगरेजी में बंटी मीडिया बजट को दो नजरिये से देखता है, तो ये आम नागरिक के साथ कितना बड़ा अपराध कर रहा है, इससे पूरी मीडिया बिरादरी खुद अनजान है। मीडिया की साख अगर खोयी है, तो उसका एक कारण ये भी है। साख महत्वपूर्ण है, जिस दिन साख चला जाएगा, उस दिन क्या होगा, ये सोचिये।

2 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

अभी कुछ बची है क्या "साख" ?

हिन्दी एलेक्ट्रोनिक मीडिया का सतहीपन दर्शक नहीं जुड़ा सकता .

दूरदर्शन में अभी भी कुछ माद्दा बचा है लेकिन शहरी दर्शक नहीं हैं

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

bahut achha likhaa hai

www.maniknaamaa.blogspot.com

Prabhat Gopal Jha's Facebook profile

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

अमर उजाला में लेख..

अमर उजाला में लेख..

हमारे ब्लाग का जिक्र रविश जी की ब्लाग वार्ता में

क्या बात है हुजूर!

Blog Archive