Monday, February 8, 2010
ये पब्लिक को मूर्ख बनाने की कवायद है....
माइ नेम इज खान के ठीक पहले शाहरुख एक विवाद में घिर गये। बड़ा विवाद था। पृष्ठभूमि ऐसी तैयार हो गयी है कि वे आज के हिन्दोस्तां में धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करनेवालों के अगुवाई के रूप में दिखाए जा रहे हैं। जाहिर है कि बिना कुछ परिश्रम किए, सिर्फ एक बयान ने शाहरुख के लिए एक बड़ा मार्केट तैयार कर दिया है। मार्केट, जहां उनकी डिमांड है। फेसबुक, टि्वटर और न्यूज चैनलों पर वे छाए हुए हैं। उसके साथ-साथ माइ नेम इज खान को भी धीरे-धीरे गीतों के साथ ट्रेलर के साथ प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। मैं ये सोचता हूं कि ये पब्लिक को कितनी आसानी से मूर्ख बनाने की कवायद है। इस मार्केट का यूज कितनी आसानी से हो जाता है। ये बाजार, नामों के पीछे भागता है और नाम अपने गेम से इन्हें नचाते रहते हैं। देश में ऊपर बैठे सारे लोग जानते हैं कि कैसे मौके का फायदा उठाया जाए। और शाहरुख का विवाद एक उदाहरण है। पहले प्रचार करो, फिर उसका धुआंधार फीडबैक लो और फिर कुछ ऐसा करो कि दर्शक आप ही थिएटर की ओर चला आए। थ्री इडियट में भी विवादों का सहारा लिया गया। विवाद हुए। आप गौर करें, हर सफल या हिट फिल्म के पीछे विवाद होता है। पत्रिकाएं उन विवादों से कुछ दिन पहले तक रंगी रहती हैं। हम जैसे लोग भावुकतावश बस मुंह बाये इस पूरे नाटक को देखते रहते हैं। दर्शक का किरदार निभाते चलते हैं। हम पब्लिक जिताने के लिए एसएमएस कर वोट करते है। उस वोट में हिस्सेदारी की बात होती है, जिसके सहारे चैनल के प्रोग्राम बनानेवाले मुनाफा बटोरते हैं। पहले प्रोपेगेंडा शब्द को समझ नहीं पाता था, लेकिन अब समय के साथ इस पूरे मामले का कांसेप्ट क्लीयर होता जा रहा है। वैसे माइ नेम इज खान देखना जरूर है। वैसे विवाद न हों, तो हम भी ये पोस्ट न लिख पाएं।
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4 comments:
यदि यही आलम रहा तो खानों की फिल्में देखने से पहले सोचना पड़ेगा. मुस्लिम खुद अपने आप को एक अलग राष्ट्र के रूप में परिभाषित करते जा रहे हैं.
रही बची कसर कांग्रेस और सीपीएम समेत दलों की साम्प्रदायिक नीतियां पूरी कर रही हैं. आज ही मुस्लिमों को आरक्षण संबंधी बयान देकर साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दे दिया है.
शायद यही सही है कि प्रचार के लिए ही यह सब किया जाता हो...लेकिन इस से देश का माहौल भी खराब होता है..
देखिए, शाहरूख खान की हैसियत समाज या फिल्मनगरी में क्या है और क्यों है मुझे इससे कोई मतलब नहीं। पर, यह हमें क्या हो गया है कि हम उन लोगों को बादशाह बनाने में तुले हुए हैं जिनके पास न सामाजिक चिंताएं हैं न जन की। एक-एक फिल्म का ये लोग करोड़ों डकारते हैं लेकिन जनता को क्या देते हैं?
आखिर जब इनके पास हमारे लिए कोई वक्त नहीं फिर हम क्यों इनके बेमतलब के शोशों को हवा दें?
कुछ पाकिस्तान-भक्त भारतद्रोहियों ने 'फिल्म-अभिनेता' का रूप धर लिया है। भगवान भारतवासियों को वह शक्ति दे कि वे इन्हें पहचान सकें।
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