Sunday, March 7, 2010

अब वह बात नहीं रही कि नारी उत्थान पर प्रगति का भाषण दिये और चल दिये

आज महिला दिवस है। देश की आधी आबादी के जश्न मनाने का दिन। मैं आज के इस दिन को संघर्षों पर विजय के दिन के रूप में देखता हूं। सच कहें, तो मुझे नारी के रूप में शुरुआती दौर में किसी फिल्मी हीरोइन ने नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी ने प्रभावित किया था। हम उन ८० के सालों में सिर्फ इंदिरा की आवाज सुनने के लिए रांची के मोरहाबादी मैदान में भीड़ का हिस्सा बनने के लिए जाते हैं। उम्र कोई सात-आठ साल होगी। ज्यादा समझ थी नहीं, लटकन में जाते और सुनते थे इंदिरा को। ये जानते थे कि वे भारत की प्रधानमंत्री हैं। उनकी साड़ी में सौम्य मूरत गजब का आकर्षण रखती थी। उसी दौर में मार्गेट थैचर को भी देखता था  अखबारों में। मैं सही में कहूं, तो इन दो महिलाओं में ऐसी शक्ति का केंद्र देखता था, जो विश्व की राजनीति को दिशा देने की क्षमता रखती थीं।

फिल्मों में हेमा मालिनी, जीनत अमान हों या रेखा, रह-रहकर चमत्कृत कर जाती थीं। हम ये नहीं जानते थे कि उस समय नारी जैसे वर्ग को इतने संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है। सही में कहें, तो हाल में राजस्थान के एक गांव में सौ सालों के बाद बारात पहुंचने की घटना ने झकझोर दिया है। आधी आबादी का सच इतना क्रूर है, कह नहीं सकता। बेटे के लिए इतना मोह कि आदमी पांच बेटियों के बाद एक बेटा चाहे। नारी सशक्तिकरण, नारी उत्थान और अन्य विषयों को लेकर इतनी बहस तेज हुई कि आज के दौर में हर कोई जानता है कि हमारी आधी आबादी कितने संघर्षों को आत्मसात किये हुए है। मां के जन्म के समय उसके द्वारा महसूस किये जानेवाले दर्द को पिता नहीं समझ सकता। और न ही मां की ममता को पिता जान सकता है। शक्तिपीठ में जाते समय कभी भी ममत्व से भरे चेहरे में पुरुष चेहरा का भान नहीं होता, वहां मां के उसी चेहरे का बोध होता है, जो मन में बचपन से समाया हुआ है।

सच में बेलाग होकर कहें, तो साप्ताहिक हिन्दुस्तान में फूलन देवी की आत्मसमर्पण के समय में कवर पेज की फोटो छपी थी। हमारे अवचेतन मन में फूलन की बंदूक लिये तस्वीर आज तक कैद है। डर कर उस कवर पेज को फाड़कर फेंक दिया था। बाद में फूलन के संघर्ष और उसके द्वारा अंजाम दी गयी घटनाओं को फिल्म के जरिये ज्यादा जाना। उस फिल्म में दृश्य, डरा जाते हैं। हॉल में हर दृश्य के बाद सन्नाटा पसर जाता था, क्योंकि ऐसा वीभत्स या कहें निर्मम सत्य का हमने पहले शायद कभी सामना नहीं किया था। क्या चंबल क्षेत्र की नारियों की स्थिति सचमुच में उस दौर भी उतनी ही भयानक थी, जितना फिल्म में दिखाया गया है? अंतरद्वंद्व के किस्से को जिस हिसाब से गढ़ा गया था, वह हिला जाता था।

 ९० के दशक में ऐश्वर्या और सुष्मिता के सौंदर्य प्रतियोगिता जीतने की घटनाओं ने शायद नजरिये को बदल कर रख दिया। हम भी नारी उत्थान, उन्नति और अन्य चीजों को नये नजरिये से देखने लगे। मुझे ऐश्वर्या और माधुरी में ऐसी स्त्री नजर आने लगी, जो पूरी फिल्म इंडस्ट्री को खुद के इशारे पर नचा सके। नारी उत्थान के इस दौर को भी हमारी पीढ़ी ने देखा। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को कौन कम आंक सकता है। आज के वैश्विक मापदंड वाले मामले में नारी या महिलाएं क्या किसी चीज में कम हैं?

 सच में कहूं, तो इतने पोस्ट नारी उत्थान के पढ़ और देख लिये कि ये अहसास हो गया कि कुएं के मेढक की तरह टर्र-टर्र करना उचित नहीं। मैं नारी शक्ति को कमकर नहीं आंकता। हमारे मिथिला में मिथिला आर्ट की हुनरमंद और कोई नहीं महिलाएं ही हैं। शंकराचार्य को पराजित करनेवाली मिथिला की ही महिला थी। हमारा कहना है कि क्या आधी आबादी की इतनी ठोस प्रगति को कम करके आंका जा सकता है? पत्रकार के तौर पर महिलाओं की उपस्थिति को मीडिया में नकारा जा सकता है क्या? अब वह बात नहीं रही कि नारी उत्थान पर प्रगति का भाषण दिये और चल दिये। दौर बीत चला है। अब तो वे बराबरी पर हैं। कैसे उनके साथ संतुलन की स्थिति पैदा हो, पुरुष समाज ये सोचे।

4 comments:

Mithilesh dubey said...

कहीं आप पुरुष समाज से बाहर तो नहीं ?????????

Chandan Kumar Jha said...

बढ़िया पोस्ट । मिथिला आर्ट या मधुबनी पेंटिंग ?

Anonymous said...

badhiyaa prastuti

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

बराबरी पर तो खैर अभी भी नहीं है. मैं फिर वही कहूंगा कि एम्पैथी की बात कीजिये, फिर पुरुष हो या नारी, सारी दिक्कतें खत्म.

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