Monday, March 8, 2010

नारी को अब गार्जियन की भूमिका में रोल निभाने की तैयारी करनी होगी...

क्या आप बता सकते हैं कि किसी पत्रिका या किसी सीरियल में काली चमड़ी की औरतों को क्यों नहीं दर्शाया या दिखाया जाता है? गोरी या सांवली लड़कियों का ही बोलबाला रहता है। नारी विमर्श के बहाने ये सवाल सीधे मन पर वार करता है। नारी विमर्श के इस दौर में इस बात पर भी गौर करना होगा कि नारी स्वतंत्रता के नाम पर कहीं दिशा में भटकाव भी तो नहीं हो रहा। आप रंगीन पत्रिकाओं के कवर पेज पर जाएं, तो मॉडल युवतियों के फोटो चस्पाई मिलेगी। कम से कम, हम जिसे अश्लील कहते हैं, उस स्तर पर तो बहस हो। राखी सांवत के मुद्दे पर मैंने किसी भी नारी स्वतंत्रता के पक्षधर को खुलकर बोलते नहीं देखा। एक बात निश्चित है कि इस बहस को उचित मार्गदर्शन की जरूरत है। उम्र, पुरुषों से संघर्ष और देहरी को लांघने तक की कवायद को ही क्यों नारी संघर्ष की बुनियाद मान लिया गया है, ये सवाल भी बार-बार उठता है। हमारा समाज खुलेपन की ओर बढ़ रहा है, तो उस खुलेपन में महिलाओं का रुख किस हद तक नेगेटिव या पोजिटिव है, उस पर बहस होनी चाहिए। सीधे कहूं, तो सेक्सुअल मैटर्स में जज्बातों पर नियंत्रण की सीख कितनी कारगर हो रही है, ये देखना है। बाजार में गोरी चमड़ी का बोलबाला है। काली चमड़ी को कोई पूछता नहीं। एक सीरियल में तो कुरूप चेहरे के तौर पर काली चमड़ीवाली लड़कों को दर्शाया जाता है। हमें तो ये भी याद है कि उस सीरियल में उसे बीते सालों की सड़ी यादों के तौर पर बदन पर चिपकाये गये पोस्टरों के सहारे दिखाया गया था। हमें तो लगता है कि इन सब मुद्दों पर शोर इतना हो कि इन कोणों को छूनेवाले डायरेक्टरों के नसें तन जाए। ये मामला इतना संवेदनशील है कि कोई उठाने की कोशिश नहीं करता। साथ ही ये देखने की भी है कि स्त्री स्वतंत्रता या स्त्री के अधिकारों का खुद स्त्री ही तो दुरुपयोग नहीं कर रही है। और सवाल ये है कि नारी को अब गार्जियन की भूमिका में रोल निभाने की तैयारी करनी होगी। नहीं तो फिर से हाथ में आयी बाजी छूट जाएगी।

(नारी विमर्श के बहाने ये मेरी अंतिम पोस्ट, मेरी ओर से बहस को विराम)......

7 comments:

indian citizen said...

वह तो पहले से ही है.

Anil Pusadkar said...

बात तो सही कह रहे हैं आप।

शेफाली पाण्डे said...

jinko shuruaaat me kaalee yaa sanvlee dikhaya bhi jaata hai....unke chehre me bhi baad me itna makeup thopa jaata hai ki samajh nahi aata ki kya yah kabhi kaali ya saanvlee thee....yaad karen.....salonee, aur ragini ka chehra....

Chandan Kumar Jha said...

बढ़िया सवाल………

प्रवीण पाण्डेय said...

सीरियलों पर नारी का चित्रण उनके ऊपर अन्तिम सत्य निरूपित नहीं करता है । उन पर नारी के सारे रूप दिखाने से भी कोई सामाजिक परिवर्तन होने से रहा । मनोरंजन के रूप में ही थोड़ा बहुत सामाजिक संदेश दिया जा सकता है ।

विनीत कुमार said...

प्रभातजी, सीरियल स्त्री-विमर्श पढ़कर नहीं बनाए जाते और न ही कोई स्त्री-विमर्शकार आपके मन-मुताबिक सीरियल बनाए तो पैसे देने जा रहे हैं। आप बहस के लिए बले ही इस मुद्दे को उछाल लें लेकिन सीरियल मनोरंजन का हिस्सा है जिसमें अपीयरेंस भी शामिल है। शायद यही वजह है कि बालिका वधू,उतरन,लाडो न आना इस देश में,अभी लांच हुए दो नए सीरियल जमुनिया और काशी(एनडीटीवी इमैजिन)जैसे समस्यामूलक सीरियल भी अपीएरेंस और कॉस्ट्यूम पर अच्छा-खासा पैसा खर्च करते हैं। सोप ओपेरा टेलीविजन को सिर्फ दर्शक ही नहीं बल्कि बाजार को ग्राहक मुहैया कराने का काम करते हैं। बल्कि इसे आप ऐसे कहें कि सोप ओपेरा का काम है कि वो स्त्रियों के फैशन में इस्तेमाल होनेवाली चीजों के लिए बाजार को समर्थन देने का काम करें।
इसलिए बहस किसी भी मुद्दे को लेकर किए जा सकते हैं लेकिन जिस बात को लेकर हमारी दखल संभव नहीं है उस पर बहस करने का मतलब अपने को सिर्फ संतई के काम में साबित करना है और कुछ नहीं।..सोप ओपेरा न्यूज चैनल नहीं है कि आप उससे सीधे-सीधे सरोकार की उम्मीद करें।.

कृष्ण मुरारी प्रसाद said...

बराबरी की सारी कागजी और कानूनी कार्रवाईयों के बावजूद भारत में संबंधों की शतरंज में नारियाँ पुरुषों के हाथ में होती है.पुरुष ही तय करता है कि महिला को कितने प्रतिशत आधुनिक होना है और कितने प्रतिशत पारंपरिक.
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से.....: महिला दिवस ...हिम्मत से पतवार सम्हालो......
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