मैं जब एनडीटीवी पर उजड़ती बस्ती के फिर से बसने की कहानी देख रहा था, तो खुद में सीखने की ललक को जगा रहा था। यहां ये तारीफ किसी ऐसी चीज के लिए नहीं है, जो सिर्फ कहने के लिए है, बल्कि जिन सामाजिक सरोकारों को लेकर लगातार हम रिपोर्टिंग की अपील एक दर्शक के बतौर करते रहते हैं, उसकी एक बानगी हमें बस्ती के बिगड़ने, उजड़ने और बनने में मिली।
हम रांची में जहां रहते हैं, वहां पर पूरी कॉलोनी को बस्ते देखा है। सामने की पहाड़ी पर घरों को बनते देखा है। हमने उजड़ते चमन के दर्शन नहीं किये। इसका कारण यही रहा कि हम बड़े शहरों में नहीं रहते। सुना है कि बड़े शहरों में लोग बिल्डिंग या किसी खास परियोजना के लिए उजाड़ दिये जाते हैं।
रिपोर्ट में एक बात साफ हो जाती है कि हर शहर और हर आबादी की अपनी जिंदगी होती है। उस जिंदगी की अपनी कहानी होती है। जैसे नदी की धारा खुद ब खुद अपनी राह बना लेती है, वैसे ही लोग अपने जीने की राह चुन लेते हैं। हमारे यहां एचइसी जैसे बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान की स्थापना हुई। सुनते हैं कि एक समय यानी ६०-७० के दौर में और ८० के प्रारंभिक वर्षों में रौनक रहा करती थी। यहां भोजपुरी भाषियों की अच्छी-खासी संख्या रही। कई लोगों के पोते-परपोते गांव-देहात से बिछुड़ कर आज इस झारखंडी माटी के लाल बन चुके हैं। उनका नाता वहां से भी उतना ही है, जितना यहां से है। आज एचइसी में कर्मचारी घटते चले गये और रौनक भी जाती रही। वैसे में किसी संस्थान के बसने और उजड़ने पर कहानी बनाने के लिए एचइसी एक जीवंत गवाह है।
किसी भी कहानी का विस्तार इतना बड़ा होता है कि उसमें कई कोण समा जायें। हमारे यहां एक संघर्ष पिछले हजारों सालों से चला आ रहा है कि मध्यम और निम्न वर्ग का आदमी परिवर्तन के नाम पर हमेशा हाशिये पर होता है। नौकरी के लिए भटकता मध्यम वर्ग का युवक किसी बस्ती के बनने और उजड़ने का एक गवाह बनता रहता है। उसी रिपोर्ट में रवीश बताते हैं कि कैसे छोटे से घर में मंदिर भी होता है और वाशिंग मशीन के लिए जगह भी निकाल ली जाती है। मिडिल क्लास की जिंदगी आंखों के सामने रहती है। ऐसा क्या है कि रवीश बार-बार जेहन में ये डाल जाते हैं कि उनमें कुछ खास है। उनकी रिपोर्ट जब भी देखता हूं, तो लगता है कि ऐसी ही भाषा होनी चाहिए। मानवीय पहलू को छूता उनका वाक्य बारंबार सीखने के लिए प्रेरित करता है। ये बता जाता है कि पत्रकारिता के नाम पर हमारे जैसे लोग अभी भी सीखने की सीढ़ी के पहले पायदान पर हैं। उसमें अंतिम वाक्य कि रिपोर्टर जिंदगी में रिश्ते बनाता और पीछे छोड़ जाता है, भावुक कर जाता है।
रवीश से गुजारिश है कि हमें इतना भावुक मत कीजिये। रवीश की रिपोर्टिंग में जीवन में झांकने की कला नजर आती है। हमेशा कुछ अलग हटकर। इस बार बस्ती के बसने की कहानी बिना पलक झपकाये देखता रहा। अब वैसी ही अगली रिपोर्ट को इंतजार रहेगा। लेकिन एक बात पता चल गयी कि उस बस्ती में ज्यादातर लोग फिल्में और गाने ही सुनते-देखते हैं। चैनल काफी कम। सोचनेवाली बात है।
Saturday, April 10, 2010
रवीश से गुजारिश है कि हमें इतना भावुक मत कीजिये
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2 comments:
sir report to nahi dekh paya lekin aap ki vyakhya sachmuch ye sochne par vivs kar gayi ki kuch achchha mis kar diya..
vineet ka comment....
ऑब्जेक्टिविटी और तथ्यों के नाम पर वाजिब किस्म की जो संवेदनशीलता मीडिया के भीतर से खिसकती चली जा रही है,रवीश उसे पूरे दम से खींच लाने की कोशिश करते हैं। इसलिए उनकी रिपोर्ट को देखते हुए अक्सर महसूस होता है कि वो सिर्फ खबर नहीं दिखाना चाहते हैं बल्कि काफी कुछ जो छीज रहा है उसे बचाने की भी अपील करते हैं। रिपोर्ट की बात करने के क्रम में आपने अपनी बात ज्यादा कर दी लेकिन इसे बेहतर होने की अपील के साथ पढ़ना अच्छा लगा
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