Wednesday, June 9, 2010
इतना अंतराल लिखने में कभी नहीं रहा..
पहले जब पोस्ट लिखने या नहीं लिखने का कोई सवाल मन में नहीं रहता था. जो आया, जिस पर आया, जमकर लिखा. लेकिन अब लगता है, जैसे सवालों की कमी हो गयी है या कोई ऐसी परिस्थिति सामने बनती या बिगड़ती नहीं दिखाई पड़ती, जहां से कुछ लिखना शुरू किया जाये. संवेदनाओं या सोच के मर जाने की कहानी सुनी थी, लेकिन क्या ऐसा होता है कि हमारी अपनी सोच भी समय के साथ कुंद पड़ जाती है. पहले अगर भोपाल गैस त्रासदी कांड पर होता, तो हो सकता था कि पोस्ट दर पोस्ट लिख डालता, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता. क्योंकि मन में ऐसे विचार आते हैं कि क्या हमारे इस छोटे से प्रयास का कोई असर पड़ेगा/ कई हजारों लेख अब तक इस पर लेख लिख डाले गए होंगे. सवाल ये है कि हमारे प्रयास से क्या सिस्टम बदलता है? क्या सिस्टम में ऐसी कोई चिंगारी फूटती है कि परिवर्तन की बयार बहती रहे. जिंदगी में बदलाव आते रहते हैं. वैसे में ब्लागिंग को लेकर ये विचार आ रहा है कि अब इसे मात्र गरियाने या स्वांतः सुखाय वाले माध्यम से अलग कुछ ऐसे माध्यम के रूप में उपयोग किया जा सके, जहां बेहतर संवाद हो. ब्लागिंग क्या है और किसके लिए है, ये एक ऐसा सवाल है, जो हर कोई पूछना चाहेगा. शायद मैं भी. हम न तो साहित्यकार की तरह लिख सकते हैं और न किसी दूसरे शीर्षस्थ पत्रकार की तरह विद्वता की छाप छोड़ सकते हैं. जैसे मन में आया लिखते रहे. अब जाकर लगता है कि यार इतना कैसे लिख डाला. खुद में विस्मय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. हमारे लिखने के रिकॉर्ड को उठाकर देख लिजिये, इधर काफी काफी कम लिखा है. इतना अंतराल लिखने में कभी नहीं रहा। अब उबाल भी नहीं रहा। ये खुद में कैसा बदलाव है, समझ में नहीं आ रहा.
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4 comments:
अच्छा नहीं है ये बदलाव... सिस्टम न भी बदले लेकिन चुप बैठना भी तो ठीक नहीं... दिमाग खराब हो जाता है चुप बैठकर...
achha
आप मानें या ना मानें… लेकिन लिखने से भले ही सिस्टम न बदलता हो, लेकिन उस सिस्टम को बदलने के लिये ज्वालामुखी के भीतर जो चिंगारियाँ और लावे की लहरें फ़ूटनी चाहिये वह इन्हीं लेखों के जरिये होती हैं…। ऊपरी सतह पर बदलाव दिखाई नही देता, लेकिन अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ बदल चुका होता है।
जब माली पेड़ लगाता है तो वह खुद फ़ल खाने की इच्छा कभी नहीं रखता, वह अगली पीढ़ी के लिये ज़मीन तैयार कर रहा होता है… सार्थक लेखन भी कुछ-कुछ ऐसा ही है…
इसलिये श्मशान-वैराग्य त्यागिये, और मैदान में आ जाईये… यह "शो" कभी खत्म होने वाला नहीं है और न ही किसी के लिये रुकने वाला है… इस "शो" में तो "परफ़ॉर्मर" ही याद रखा जायेगा… :) :)
(लगता है मैं कुछ ज्यादा ही बक गया…)
समस्या उपज सकती है मन में...विश्लेषण करते रहना चाहिए....
चिपलूनकर जी ने बहुत बड़ी और बढ़िया बात कही....जो आपको असमंजस के कारण ही हम तक पहुँच सकी...आभार..
कुंवर जी,
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