लोग पैरेंटिंग को लेकर टेंशन में हैं. कैसे बच्चों को पालें, ये सोच रहे हैं. दुविधाओं के बीच जिंदगी तो चलती रहती है. दो दिन पहले बेटियों के साथ सड़कों पर जा रहा था. फुदकती नन्ही टांगें बहुत कुछ बयां कर जा रही थीं. इन दो नन्हीं टांगों की स्वामिनी के सामने पूरा भविष्य पड़ा है. कॉलोनी की इन्हीं सड़कों पर हम भी बड़े हुए हैं. पहाड़ की चोटियों पर रेस हम भी लगा चुके हैं. चोटियों पर चढ़कर खुद को किसी राजा की माफिक समझना और वहां से रांची की पूरी जिंदगानी निहारना मन को शांत कर देता था. वहां ऊपर चोटी पर खड़ा होकर रांची की हरियाली को नापते हुए किंचित भी ये अहसास नहीं होता था कि हम उन चंद सौभाग्यशाली बच्चों में हैं, जो इन हरियालियों का इस तरह दर्शन कर रहे है.
रांची की पहाड़ियों पर घर बन गए हैं. लोग अब नहीं जाते. हमारे घर के बगल में सेना के द्वारा बनाये गये फायरिंग रेज की लंबी सड़क सेना ने आम पब्लिक के लिए बंद कर दी है. अब तो बस कॉलोनी की सड़क पर बतकही करते हुए समय गुजरता है.कॉलोनी के बगल में जितने भी खेत थे, उन पर घर बन गए हैं. अपार्टमेंट का जंगल खड़ा हो गया है. कैसे भी हो, लोगों को घर चाहिए. गांव छूटा, तो छूटा, लेकिन शहर में हमें रहना है, ये एटीट्यूड है. सरकार की गलत प्रणाली ने एजूकेशन सिस्टम का भी गांव में ऐसी की तैसी कर दी है. गरीब गांववाला कहां जाए. वह भी शहर की ओर भागता है.
सारे नेता चिल्लाते हैं कि शहर में गांववाले बस रहे हैं. हमें भी इन्हीं नेताओं से पूछना चाहिए, क्यों न आएं गांववाले. आप एसी कमरे में रहें और गांव का आम पब्लिक खेतों में काम करे, ऐसा कैसे होगा. किसान को किसान नहीं रहने देते. उसे लाचार, गरीब कहते हुए पेशे को ही नजरों से गिरा दिया है. ये किसान भी कारपोरेट सेक्टर की तरह जूनियर लैंड एग्जीक्यूटिव कहला सकता था, यानी जमीन अधिकारी कहला सकता था, लेकिन सड़ी-गली मानसिकता ने उसे बेचारा ही रहने दिया. जब ६० सालों से किसान की मानसिकता ही गरीब है, तो तरक्की कैसे हो.
मैं और मेरे जैसे कई लोग बेटियों के लिए विरासत के नाम पर कचड़ा दे रहे हैं. ये आज के बच्चे कल को कहां जाएंगे. कहां खेलेंगे. आज एक सेमिनार में पता चला कि बच्चे डायबिटीज का शिकार हो रहे हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है कि वे खेलते नहीं. फिजिकल एक्सरसाइज नहीं करते. खेले कहां, खेल के मैदान ही नहीं है. हम जानते हैं कि जिंदगी अनमोल है, लेकिन हम इसकी परवाह नहीं करते. अब जब परवाह करेंगे, तो कहीं देर नहीं हो जाए.
Saturday, July 24, 2010
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2 comments:
हर चीज को भरपूर बिगाड़ने की खूबसूरत कवायद हो रही है.
विरासत के नाम पर हम उन्हे कचड़ा ही दे पा रहे हैं। बड़ा ज्वलन्त प्रश्न उठाया है आपने।
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