Monday, August 9, 2010
हिन्दी लेखक-मठाधीश चिंतन करें
जब छिनाल एपिसोड को लेकर बवाल उठा, तो लगा कि कुछ खास मुद्दा होगा. एक भूतपूर्व आईपीएस यूं ही जीभ को फिसलाकर नहीं बोल सकता. दो-चार दिन के चिल्लपों के बाद मामला शायद शांत हो गया है. हम यहां संस्कार और संस्कृति की इस देश में बातें करते हैं, भाषा के मठाधीशों के मुख से लफंगा, छिनार या दूसरे शब्दों को सुनते देखते हैं. हम भाषा के नाम पर चिंतित हो जाते हैं, हम शोर करते हैं, लेकिन हम खुद को संयमित रखते हुए संतुलन की बात नहीं करते. दो मिनट की पब्लिसिटी का जो ख्वाब इस देश के लोग देखते या देख रहे हैं, उसने सारा खेल बिगाड़ कर रख दिया है. अब सवाल छिनाल शब्द और किसी की इज्जत का हो, तो यहां ये शोध का विषय है कि छिनाल किसे कहेंगे. आज तक हमारा कानून भी शायद अश्लीलता को पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर पाया है. आखिर अश्लील किसे कहेंगे. किसी को आप आवारा या बदचलन कैसे कहेंगे. कोई क्या है, इसका सर्टिफिकेट भी आप कैसे देंगे.जो ये सर्टिफिकेट देने के ठेकेदार बनते हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या उनके पास इसके लिए कोई पैमाना है. हम जब खुद अपने चरित्र को लेकर स्पष्ट नहीं हैं कि हम क्या कह या सुन सकते हैं, तो हम दूसरों के ऊपर कैसे फैसला दे सकते हैं. सामने अगर कोई एकदम से सच्चा चरित्र दिखाए और वहीं भीतर से दोगलापन लिये रहे, तो क्या हम-आप माफ कर देंगे. हम लोग तो हमाम में खुद नंगे हैं. हमारे यहां के तमाम लेखकों की सोच का दायरा उन चंद बौद्धिक जुगालियों तक सिमट कर रह गया है, जो किसी को भी प्रभावित नहीं कर पाता है. कुछ दिनों पहले एक लेख पढ़ रहा था कि क्यों हिन्दी के लेखक इतनी बौद्धिक मठाधीशी के बाद भी प्रसिद्धि और पैसे के लिए ललचाए रह जाते हैं. उनके हाथ में कुछ नहीं आता है, सिवाय इसके की चार-पांच समर्थक डफली बजाते हुए साथ-साथ चलते रहते हैं, जबकि चेतन भगत सरीखे टेक्नोक्रेट या यूं कहें युवा एक-दो अंग्रेजी किताबों के सहारे बेस्ट सेलर का खिताब पाते हैं. परंपरागत शैली की नकल करते हमारे हिन्दी के तमाम लेखक कुछ नया नहीं कर पाते.उनके पास न तो नए समाज को गढ़ने लायक सोच है और न ही बहस को पैनापन देने की शैली. वे लोगों की जिंदगी में बदलाव के लिए कुछ नया नहीं लिखते. और अगर लिखते भी हैं, तो वह एक खास दायरे में सिमट कर रह जाते हैं. हमारे जैसे लोग जो भी लिखते हैं, तो वे ये नहीं सोचते हैं कि इन चीजों को लेकर कुछ फायदा भी होगा या नहीं. बस लिखते हैं. ऐसे में हिन्दी लेखक या इसके मठाधीश चिंतन करें कि आपस में लड़-भिड़कर किस व्यवस्था का ये सृजन कर रहे हैं.
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