कुछ दिनों पहले एक एक्सीडेंट में बाल-बाल बचा, लेकिन स्कूटर का भट्ठा बैठ गया. अब मजबूर होकर पैदल चलना पड़ता है. शुरू में न जाने क्यों पैदल चलने के नाम पर शिकन की हल्की रेखा माथे पर उभर जाती थी. लेकिन दो-चार दिनों के बाद ये मस्ती में बदल गयी. आज-कल रोज पैदल जाने के क्रम में कई ऐसे लोगों से भी दुआ-सलाम कर ले रहा हूं, जिनसे मिले कम से कम तीन से चार साल गुजर चुके हैं. फिटनेस भी बढ़ा है.
मेरी जिंदगी के पन्नों में ये दिन खुशनुमा पलों में शुमार होते जा रहे हैं. साथ ही पैदल चलने के क्रम में कई बार प्रभु को धन्यवाद देना भी नहीं भूलता. इसका कारण रिम्स से गुजरते वक्त जिंदगी के सुख-दुख के सम्मिलित अनुभवों से गुजरना होता है. वहां से गुजरते वक्त कई बीमार लोगों को इलाज के लिए जाते वक्त ये सोचता हूं कि ये ईश्वर कृपा ही है कि अपनी दो टांगों पर जिंदगी की दौड़ में शामिल हूं. हमारी जिंदगी में चलते सवालों के दौर में हम ज्यादातर समय निगेटिव थिंकिंग को ही तरजीह देते हैं. ऐसे में कभी-कभी हालात आपको उस स्तर पर ले जाते हैं, जहां से आपको सही या गलत का फर्क मालूम पड़ता है. एक बात कहूं, तो अभी की जिंदगी में पैसे से ज्यादा संतुष्टि को ही अहमियत देने की बात होती है, क्योंकि इसके पहले संतुष्ट होने के नजरिये से कभी जिंदगी को नहीं देखा. जो भी हो, जिंदगी पहले जैसी नहीं रही.
इस साल का संकल्प थोड़ा आध्यात्मिकता से भरा है, पैसे को कम, आत्मसंतुष्टि को ज्यादा तरजीह देना है. बस ईश्वर की कृपा से अभी के दौर में मिल रही प्रसन्नता कायम रहे. दोस्तों के लिए भी यही दुआ करता हूं. एक बात का ख्याल और आता है कि सारे लोग गति में हैं. हमारे आसपास किसी के पास अपने दोस्तों के लिए वक्त नहीं है. ऐसे में मैं अपना ज्यादा से ज्यादा समय दोस्तों और परिजनों के बीच गुजारने का इच्छुक हूं. कम से कम खुद को तो दुनिया की भीड़ में अलग कर सकूं. वैसे भी पैसे को लेकर हाय-तौबा से अब घृणा सी होने लगी. जितने भी पैसे मिले, कम से कम दाल-रोटी चलती रहे, केवल यही इच्छा है.
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2 comments:
आत्मसंतुष्टि ही अधिक सुख दे पायेगी।
अन्तिम पंक्तियां ही सबकुछ बयान कर रही हैं.
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