पारो... ओ पारो तू चली गयी क्य... मैं तेरे बिना कैसे जीऊंगा.....पारो... मैं मर जाऊंगा. मिट जाऊंगा. जब देवदास इस डायलाग के साथ अपने दिल पर हाथ रखता है, तो न जाने कितने आंसू बेधड़क बह निकलते हैं. पारो का भी रो-रोकर बुरा हाल रहता था. ये किस्सा सात साल पहले तक चल रहा था. इस पर फिर से फिल्म रीमेक की गयी. ऐश्वर्या और माधुरी दीक्षित के साथ शाहरुख ने यादगार अभिनय किया. उस समय शरतचंद्र के पारो और देवदास पर न जाने कितनी बातें होती रहीं. लेकिन जमाना बदला, रंग बदला और बदल गया अंदाज. आज की पारो रोती नहीं और न ही आज का देवदास तड़पता है.
अभी कोई एक एड आता है, तो उसमें ब्रेक अप का सीन आता है. लेकिन उस सीन में तड़प नहीं है. वो दर्द नहीं है. इस ब्रेक अप में मस्ती का अहसास रहता है. ब्रेक अप के समय लड़की गरियाती है-गो टू हेल और दरवाजा बंद कर लेती है. लेकिन लड़का यानी ब्वाय फ्रेंड डांस करता है. नई शुरुआत की बात करता है. हमारे एड में दिखायी जा रही बातें सोसाइटी में आ रहे बदलाव की ओर इंगित करती हैं. ये दिखाती हैं कि हमारे यहां रिश्तों को लेकर जो एक भावनात्मक लगाव था, वो अब नहीं रहा.
कल एक बंदे से बात हो रही थी. उसने अपने लेख में जनसंख्या वृद्धि पर चिंता जतायी. हमने भी कहा-आपकी बात सही है. लेकिन रिश्तों के इस बदलते दौर में बदलते ट्रेंड की ओर भी गौर करें. कन्याओं की घटती संख्या पर गौर करें. उपभोक्तावादी होते जा रहे हमारे नजरिये की बातें करें. साथ ही बातें करें हमारे स्व केंद्रित होते जा रहे युवाओं की. सही में कहें, तो हमारे यहां दस में छह युवा शादी के बाद या तो बच्चे नहीं चाह रहे और चाह भी रहे हैं, तो एक या दो. ऐसे में जो जनसंख्या वृद्धि का दौर है,वह कल को जरूर धीमा होगा. बुआ, मौसी के रिश्तों की आंच जरूर धीमी होगी. आज का ऐसे में ब्रेकअप पर आनंद उठाते बंद को देखना थोड़ा मजा जरूर देता है, लेकिन सोसाइटी के खतरनाक संकेत की ओर भी इशारा करता है. हम नई शुरुआत की चाह में ऐसा कर रहे हैं कि हमारा सिस्टम ही ब्रेक करता जा रहा है.
जब ओल्ड एज होम घूम कर आए मेरे दोस्त बताते हैं कि कैसे एक दादा की आंखें पोते की राह ताक रही हैं, तो आंखों में आंसू छलछला उठते हैं. ये देश रिश्तों के मामले में अमीर रहा है. भले ही वह देवदास या पारो की हो या हीर-रांझा की. यहां भावना यानी इमोशन की कद्र होती रही है. लेकिन हम प्रोफेशनल होते जा रहे लोग, हर चीज को प्रोफेशल एंगल से ही देख रहे हैं.
मेरे लिये तो इस छोटी सी जिंदगी में रिश्तों की उतनी ही चाह और तड़प है, जितना खुद को जिंदा रखने की कोशिश है. मैं खुद चाहता हूं कि मेरा हर रिश्ता कुछ खास हो.अपने बच्चों में भी रिश्तों की अहमियत की तड़प देखना चाहता हूं. एक साथी साइकोलाजिस्ट चिंता जताते हैं कि आज कल लोग क्यों ज्यादा से ज्यादा पाना चाहते हैं. क्योंकि आधी जिंदगी जब टेंशन में भी ही तबाह हो जाएगी, तो कमाया हुआ कब काम देगा. मामला थोड़ा फिलासफिकल है, लेकिन सोचनेवाला है. वैसे क्या कोई समझानेवाला है?
2 comments:
सामाजिक मान्यतायें और संस्थायें विखंडित हो रही हैं..
पीड़ा उतनी अधिक होगी जितना गहरा सम्बन्ध होगा।
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