Friday, March 22, 2013

संजय दत्त... नायक, खलनायक, नायक और फिर खलनायक.



मुझे याद है अपना बचपन. घर में साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका आती थी. उन दिनों सुनील दत्त शायद पंजाब की पदयात्रा कर रहे थे. उनके साथ प्रिया दत्त भी थीं. तभी लोगों ने प्रिया दत्त को भविष्य का एक लीडर बताया था. प्रिया दत्त लीडर भी बनीं. मगर संजय दत्त... नायक, खलनायक, नायक और फिर खलनायक. उस दूसरे जहां में सुनील दत्त और नरगिस संजय दत्त को इस हाल में देखकर तड़प रहे होंगे. उनके फैंस और उनकी लगातार फिल्में देखनेवाले भी आहत हैं. टीवी पर चिरंजीवी भी संजू बाबा कहते हुए माफी की अपील करते हैं. काटजू साहब तो खैर. मैं तो फिलहाल इस काबिल नहीं हूं कि किसी जजमेंट पर अपना मत दूं. लेकिन मुझे अपने देश में संजय दत्त के बहाने दो तस्वीर दिख रही है, जो डराती और तड़पाती है. एक तस्वीर में उन लाखों ऐसे लोगों की छाया है, जो हालात के शिकार होकर न्यायिक व्यवस्था के मकड़जाल में ऐसे फंस गए हैं कि उन्हें बाहर निकलने का मौका नहीं मिल रहा है. दूसरी ओर संजय दत्त, सलमान खान या अन्य बड़े लोगों की तस्वीर है, जिन्हें इसी ज्यूडिशियल सिस्टम में कभी माफ कर देने या सजा कम कर देने की अपील होती रहती है. स्टारडम का नशा शायद कुछ अलग होता है. 20 साल के लंबे सालों में संजय दत्त भी काफी बदल गए हैं. शरीर से और परिवार से. उन्होंने अपनी अपील में भी खुद के परिवार वाला होने की बात कही है. ऐसे में उनकी अपील और अन्य लोगों की दलीलों से थोड़ी देर के लिए मन पसीज उठता है. बेचारे को इतनी सजा. लेकिन हमारा दिल उन हजारों लोगों के दर्द को टटोलने की कोशिश नहीं करता है, जो मुंबई में घटी घटना के बाद से अब तक तड़प रहे हैं. उनमें से एक पीढ़ी ऐसी होगी कि जिसने पैदा होने से लेकर अब तक संजय दत्त के किस्से सुने होंगे.निश्चित रूप से ये कोई शहीदी गाथा नहीं है. यहां एक ऐसी कहानी है, जो सिर्फ संजय दत्त को गुनहगार ही बताती है. रूपहले पर्दे पर संजय दत्त से रूबरू होते हुए हम शायद उन्हें अपना ज्यादा मानने लगे हैं. लेकिन ये अपनापन काटजू साहब से लेकर हम लोगों तक के जेहन में बस एक छलावा ही पैदा कर रहा है. कानून या व्यवस्था की मजबूती के लिए संजू बाबा को आदेश मानना ही चाहिए. ये हमारी न्यायिक प्रतिष्ठा का सवाल भी है. 20 सालों तक पूरा सिस्टम जिस एक प्रक्रिया पर काम करता रहा, उसके बारे में सोचना चाहिए. फैमिली, स्टारडम और रूतबा आने और जानेवाली चीजें हैं. लेकिन राष्ट्र, न्याय व्यवस्था का सम्मान और सिस्टम की इज्जत करने जैसी बातें हमेशा रहेंगी. इसी पर अपने देश की साख भी है. इसलिए मुझे प्रिया दत्ता का रोना थोड़ा अखरता जरूर है, लेकिन परेशान नहीं करता. क्योंकि मुझे उन बहनों की भी याद आती है, जिन्होंने मुंबई की घटना के वक्त अपना भाई खोया था. 20 साल गुजर गए. 20 साल. इन 20 सालों में संजय दत्त की टीवी के पर्दे पर आती हर सीन उन बहनों को अपने भाई की याद दिलाती होगी. वैसे भी संजू बाबा पूरी कहानी के एक प्यादा मात्र हैं. संजू बाबा टूट चुके हैं. लेकिन हम भी टूट चुके हैं, एक अच्छे माता-पिता के संतान के इस कदर बिगड़ जाने के लिए. सुनील दत्त जैसे पिता को शुरुआती दिनों में अपने बेटे के लिए खुशामद करते देखने के लिए. जिन्होंने सुनील दत्त के उन दिनों की तड़प टीवी पर न्यूज के दौरान देखी थी, वे आज भी उसे महसूस करते हैं. शायद इसीलिए संजू बाबा ने खलनायक फिल्म में अपने इमेज को भुनाया था. फिल्म भी सुपर हिट हुई थी. जाहिर है संजू बाबा मार्केट के हिसाब से उस दौरान खूब कमाते भी रहे. वास्तव में जिस किरदार को जिया, वह हिला देता है. वैसे इस फैसले के बाद अगर संजू बाबा आदेश को मानते हुए अपनी शेष सजा सहज खुशी से पूरी करते हैं, तो वे रियल हीरो साबित होंगे. वैसे जिंदगी इम्तिहान लेती है. इसमें पास या फेल उन्हीं को करना है. हम सब तो यूं ही शब्दों से खेलते रहेंगे.  

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सबको सम्मति दे भगवान..

Unknown said...

vidhata ka bhi aastitva hai

Unknown said...

vidhata ka bhi aastitva hai

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