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Wednesday, March 27, 2013
Saturday, October 16, 2010
बेटियों को लेकर अब कुछ स्वार्थी हो गया हूं
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कन्या पूजन ... |
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सोना और सौम्या |
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सौम्या दौड़ लगाते हुए.. |
कल मां दुर्गा के दर्शन के लिए जाते समय ये अहसास हुआ कि हम कभी रात-सीता नहीं बोलते. सीता-राम बोलते हैं. राधे-कृष्ण बोलते हैं-कृष्ण राधा नहीं. बेटियों को पढ़ते और बढ़ते देखना भी सुकून दे जाता है. बेटियों को लेकर अब कुछ स्वार्थी भी हो गया हूं , ऐसा लगता है. दूसरों से ज्यादा बेटियों की फिक्र सताती है. आज-कल बड़ी बेटी अपनी पेंटिग्स से चकित करती है,तो छोटी अपनी हरकतों से. छोटी बेटी जब खुद पानी लाकर देती है, तो एक आत्मिक रिश्ते का अहसास होता है. इन रिश्तों को कोई शब्द नहीं दे सकता.
Thursday, April 22, 2010
मेरी बड़ी बेटी आज तीन साल की हो गयी..
मेरी बड़ी बेटी आज तीन साल की हो गयी। तीन साल देखते-देखते बीत गए। काफी कुछ कहने-बोलने को है। तीन साल की सोना और एक साल की सौम्या आज हमारी जिंदगी के अहम हिस्से हैं। उनके साथ टाम एंड जेरी की शैतानी और छोटा भीम की हर जांबाजी को देखना हमारी विवशता है। कोई और चैनल लगाया सिवाय कार्टून छोड़कर तो हंगामा बरप जाता है। प्रकृति के साथ उनका अनोखा सामंजस्य रहता है। सूरज की पहली किरण के साथ जगना और ढलने के साथ सो जाना उनका नियम है। इन सबके बीच हमारी जिंदगी हमारी नहीं रहती। उसकी हमउम्र अन्य बच्चों को भी देखता हूं, तो अब जाकर जिम्मेदारी का अनोखा बोध होता है। ये बोध, ऐसा है, जो एक पिता ही महसूस कर सकता है। एक मजबूत पीढ़ी तैयार करने की जिम्मेदारी का बोध। इस पीढ़ी पर ही हमारे देश की प्रगति निर्भर करेगी। मुझे अपनी बेटी को हर वह खुशी देने की इच्छा होती है, जो हमने महसूस की है। लेकिन जिस प्रकार का समाज बन रहा है और आसपास का माहौल बदल रहा है, उसमें एकाकी होते जा रहे जीवन में उनका संघर्ष कैसा होगा, ये सोचनेवाली बात है। कंक्रीट के जंगल बनते जा रहे शहर, जिंदगी का दबाव और दूसरी चीजें जिंदगी के रस को निचोड़ ले रही हैं। एक बच्चा क्या चाहता है, मैदान में दौड़ लगाना, लेकिन शहरों में मैदान नहीं बचे रह गये हैं, कहां दौड़ेंगे आज-कल के बच्चे। हर बच्चे को ये सुविधा उपलब्ध कराना समाज की जिम्मेदारी है, लेकिन समाज इन जिम्मेदारियों से पीछे भाग रहा है। मैं अपनी बेटियों को उस दबाव से मुक्त रखना चाहूंगा, जहां प्रतियोगिता शुरू होती है। खुद का विकास हो, यही मेरा उद्देश्य होगा। कोई ऐसी योजना नही होगी, जहां उनकी जिंदगी मशीन बनती हो। खुद के व्यक्तित्व के प्रति जिम्मेदार बनो, ये जरूरी है। आज लोग खुद के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं, वे जरूरत से ज्यादा पाना चाहते हैं। इसी चाहत में सीमा को पार कर जाते हैं। उस सीमा को पार करने के बाद उनकी रंगीन जिंदगी बदरंगी हो जाती है। हम तो बेटियों को हमेशा कहेंगे, जहां रहो खुश रहो। क्योंकि खुश रहना ही जिंदगी है। जहां खुशी नहीं है, वहां पैसे की पूजा कर क्या होगा। क्या जिंदगी में खुशी के दो पल पैसे से खरीदे जा सकते हैं। थोड़ा मामला दार्शनिक हो सकता है, लेकिन सच्चाई यही है। जिंदगी को बिंदास जीना है, चाहे जैसे भी हो, यही कहना चाहूंगा।
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गांव की कहानी, मनोरंजन जी की जुबानी
अमर उजाला में लेख..
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