आज मकर संक्रांति है. सुबह-सुबह स्नान कर चूड़ा-दही खाना. रिवाज के हिसाब से. कुछ नयापन का एहसास भी होता है. लेकिन हर नयापन अपने पीछे कुछ पुरानापन छोड़ जाता है. पुराना... जिसकी नींव पर आज का नया खड़ा होता है. मैंने जनवरी के पहले सप्ताह में नए मकान में शिफ्ट किया.. अपना नहीं, बल्कि किराए का. जिंदगी के सफर में समय के हम सब गुलाम होते हैं. वो जैसा कराता है.. हम करते जाते हैं.
पिछले एक साल जिस घर में रहा, अब उस घर की यादें.. कुछ हल्की लकीर की भांति मिटती चली जा रही है. कभी-कभी निगाहें वहां खींची गई पुरानी तस्वीरों पर चली जाती हैं. पिछले साल के कई किस्से यूं ही जेहन में तैर जाते हैं. यहां नए घर में भी अब यादें जुड़ती जा रही हैं. वो भी कल पुरानी हो जाएंगी. हां..यहां नए घर में पुराने बाशिंदों के किस्से दीवारों पर लिखी-पुती हैं. उनके बच्चों के नन्हें हाथों से उकेरी गई तस्वीरें और अक्षर कुछ पल को ठिठकाती हैं. चलते कदम रुक जाते हैं. उम्र जब 40 के पास पहुंचने को होता हो, तो बचपन और ज्यादा अच्छा लगने लगता है. बिना फिकर वाले ओल्ड डेज. जो नहीं लौटेंगे. समय की तेज रफ्तार में जिंदगी तो यूं ही बहती जाती है. खासकर छुट्टी के दिन तो दिमाग उन्हीं लकीरों के आसपास फीलिंग्स को टटोलने को उतारू हो जाता है. एक लत सी लगी रहती है.
संयोग से शरतचंद्र का एक उपन्यास भी पढ़ रहा हूं. नाम है 'श्रीकांत. श्रीकांत के बचपन के किस्से पढ़कर न जाने क्यों खुद को उसी के आसपास पाता हूं. हां, अंतर बस एक रहता है कि श्रीकांत की जिंदगी गंगा की लहरों के आसपास से होकर गुजरती है, तो मेरा बचपन रांची की पहाडिय़ों को छूता हुआ. वैसे नई शहरी हवा में पहाडिय़ों पर घर बन गए हैं. हां, तो कह रहा था-दीवारों पर उकेरी गई तस्वीरों में कहानियां ढूढ़ता हूं. बेटियों की बनाई ड्राइंग में खुद के चेहरे को गढ़ा हुआ देखता हूं. मेरी बेटी की पहली क्लास की पहली ग्रुप फोटो खिंचवाई गई है. अच्छी है. बेटी के नन्हे-नन्हे हाथों को पेंसिल पकड़ लिखते देख गुदगुदी सी होती है. उम्मीद है कि ये नन्हे हाथ को बड़े काम करेंगे. वैसे जिंदगी चलते रहने का नाम है-चरैवति..चरैवति.
पिछले एक साल जिस घर में रहा, अब उस घर की यादें.. कुछ हल्की लकीर की भांति मिटती चली जा रही है. कभी-कभी निगाहें वहां खींची गई पुरानी तस्वीरों पर चली जाती हैं. पिछले साल के कई किस्से यूं ही जेहन में तैर जाते हैं. यहां नए घर में भी अब यादें जुड़ती जा रही हैं. वो भी कल पुरानी हो जाएंगी. हां..यहां नए घर में पुराने बाशिंदों के किस्से दीवारों पर लिखी-पुती हैं. उनके बच्चों के नन्हें हाथों से उकेरी गई तस्वीरें और अक्षर कुछ पल को ठिठकाती हैं. चलते कदम रुक जाते हैं. उम्र जब 40 के पास पहुंचने को होता हो, तो बचपन और ज्यादा अच्छा लगने लगता है. बिना फिकर वाले ओल्ड डेज. जो नहीं लौटेंगे. समय की तेज रफ्तार में जिंदगी तो यूं ही बहती जाती है. खासकर छुट्टी के दिन तो दिमाग उन्हीं लकीरों के आसपास फीलिंग्स को टटोलने को उतारू हो जाता है. एक लत सी लगी रहती है.
संयोग से शरतचंद्र का एक उपन्यास भी पढ़ रहा हूं. नाम है 'श्रीकांत. श्रीकांत के बचपन के किस्से पढ़कर न जाने क्यों खुद को उसी के आसपास पाता हूं. हां, अंतर बस एक रहता है कि श्रीकांत की जिंदगी गंगा की लहरों के आसपास से होकर गुजरती है, तो मेरा बचपन रांची की पहाडिय़ों को छूता हुआ. वैसे नई शहरी हवा में पहाडिय़ों पर घर बन गए हैं. हां, तो कह रहा था-दीवारों पर उकेरी गई तस्वीरों में कहानियां ढूढ़ता हूं. बेटियों की बनाई ड्राइंग में खुद के चेहरे को गढ़ा हुआ देखता हूं. मेरी बेटी की पहली क्लास की पहली ग्रुप फोटो खिंचवाई गई है. अच्छी है. बेटी के नन्हे-नन्हे हाथों को पेंसिल पकड़ लिखते देख गुदगुदी सी होती है. उम्मीद है कि ये नन्हे हाथ को बड़े काम करेंगे. वैसे जिंदगी चलते रहने का नाम है-चरैवति..चरैवति.
5 comments:
नया स्वीकार कर लेना चाहिये, पुराने का मान कभी भी कम नहीं होता है।
यह तो है, सहमत...
bariya
चरैवति..चरैवति...यही तो खाली सच है बांकि तो खेल है..:) और अनुभव तो हमें और बलवान बनाता है..नए घर में यादें आएंगी पुराने घर की..उसे शब्दों के जरिए मोहपाश में बांधे रखिएगा।
चरैवति..चरैवति... यही तो जीवन है ! समय के साथ सब बीतता जाता है, पर पुराने के नीव पर नया जन्म लेता है.......
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