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जब सन्नी लियोन के बहाने देश के नेशनल मैगजींस सेक्स जैसे विषय पर खुलकर बहसबाजी कर रही हैं, उसके बीच में शब्दों का ये खुलापन का खेल भी बड़ी शिद्दत से खेला जा रहा है. यकीन कीजिए कि तस्वीरों की मार से ज्यादा बोले हुए शब्द चोट करते हैं. और इस फिल्म में जिस तरह से चुनिंदे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, उसमें सिर्फ कान में रुई डालकर पिक्चर देखने का सिस्टम डेवलप करना होगा. हमारा फिल्मी तबका लीक से अलग हटकर फिल्म बनाने के बहाने इस कदर बदतमीज होता जा रहा है, ये इस फिल्म को देखकर अहसास होता है.
कहानी कुछ भी, बेसिर पैर भरे हों, लेकिन मानसिक दिवालियापन की हद को पार करता हर शब्द फिल्म में यूज होता जरूर दिखता है. इससे जहां दर्शक फिल्म देखने के बाद खुद को शर्मिंदा तो महसूस कराता ही है, साथ ही इस फिल्म को बनानेवाले तमाम उन व्यक्तित्वों के पेशेवराना अंदाज पर टेंशन भी लेता है कि ये बंदे पूरे देश की सोसाइटी की ऐसी की तैसी करने पर तुले हैं. सन्नी लियोन की कंट्रोवर्सी हो या पूनम पांडेय की. मीडिया से लेकर फिल्म बनानेवाले तक इसी कंट्रोवर्सी की आग में खुद को लोकप्रिय बनाने की होड़ में लगे हैं.
एडवर्टाइजमेंट तक में खुलापन अपनी चरम सीमा पर है. आप तस्वीरों से खेलिए. जो करना हो करिए. लेकिन दिमाग में शब्दों के सहारे गंदगी में फैलाइए. हेट स्टोरी का एक डायलाग सुनिए-मैं शहर की सबसे बड़ी.... (अनुमान लगाइए). अब बताइए, ये रियलिटी दर्शाने के लिए कौन सा हथियार है. थोड़ा सोचिए, थोड़ा टेंशन दीजिए, कुछ तो करिए. शब्दों की जादुगरी करिए. कुछ ऐसा करिए कि वही किरदार क्लासिक होकर रह जाए. आइ एम रियली नाऊ हेटिंग
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