हमारे देश में जिस आम आदमी के लिए हमारे राजनीतिक दल संघर्ष का ऐलान
करते हैं या आंदोलन करते हैं, वो आम आदमी आज कहां है, किस हालत में है, ये
सोचने की फिक्र किसी को नहीं है. कल रांची में झाविमो का सचिवालय घेराव
आंदोलन था. पुलिस ने भी आंदोलन को कूचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी और
आंदोलनकारियों ने भी जमकर बवाल किया. जानकारी के लिए अखबार में छपी
तस्वीरों को आप देख सकते हैं. इस पूरे प्रदर्शन में एक आम आदमी यूं ही मारा
गया. हो सकता है कि वह एक कार्यकर्ता भी रहा हो. लेकिन आंदोलन के इस तेवर
को अपनाने से पहले हमारे लीडर आम आदमी के बारे में कुछ नहीं सोचते. ये जो
आम आदमी है, वह भी तनाव में जाने-अनजाने एक भीड़ का हिस्सा बन जाता है. फिर
हालात बिगड़ने पर खुद शिकार भी. इधर रांची में ही कुछ न कुछ सवालों को
लेकर आए दिन बंद का आह्वान हो रहा है. सुरक्षा, नगड़ी से लेकर महंगाई तक का
मुद्दा हो, दल या ग्रुप तत्काल बंद का आह्वान कर रहे हैं. बीच में रुक गया
सिलसिला फिर से चल पड़ा है. बंद के दिन स्कूल, कॉलेज तो पहले से ही अब
अपने गेट पर ताला लगाकर बैठ जाते हैं और पब्लिक छुट्टी मूड में आ जाती है.
लेकिन इससे कितना नुकसान पहुंच रहा है, ये किसी को समझ में नहीं आ रहा.
शुरू में जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन के जरिए सामूहिक संघर्ष की जो ताकत
दिखाई, वह बंद के रूप में आज एक परंपरा या कहें नासूर बन चुका है. इस बंद
वाले दिन मरीज को गाड़ी नहीं मिलती और एग्जामिनी को सेंटर पर जाने के लिए
सवारी. शायद लोग भी अभ्यस्त हो गए हैं. हमारी मीडिया भी इन सब सवालों से
अलग रहती है. उसे राज ठाकरे की बयानबाजी नजर आती है, लेकिन इस गंभीर मसले
का जिक्र करना उचित नहीं लगता. सवाल यही है कि ये आम आदमी जाए, तो जाए
कहां. न तो उन्हें स्टेट के सीएम राहत देने की बात करते हैं और न कंट्री के
पीएम. रांची जैसे छोटे शहर में भी हालत ये है कि एक सप्ताह में अगर आपने
सातों दिन कोई न कोई काम तय किया है, तो समझ लें कि चार दिन आपका काम नहीं
होगा. क्योंकि किसी न किसी कारणवश शहर में ऐसा कुछ जरूर हो जाता है कि
पब्लिक को घर में रहना ही ज्यादा बेहतर नजर आता है. इस छोटी सी राजधानी का
जब ये हाल है, तो बड़े शहरों के आम आदमी की बात ही कुछ और होगी. वैसे एक आम
आदमी किसी आंदोलन में बिना कसूर के बेमौत मरे, इससे शर्मनाक बात शायद ही
कुछ और हो.
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