मैं जिस कॉलोनी में रहता हूं, वहां से कुछ दूरी पर एक फायरिंग रेंज है. आज से 20 साल पहले तक वहां का दृश्य कुछ और हुआ करता था. पहाड़ी, दो किमी लंबी सड़क और वहां शाम के समय टहलती मिश्रित आबादी. जो पूरे जेहन में एक बेहतरीन टूरिस्ट स्पॉट का नजारा पेश करती थी. शाम होते ही हमारे कदम दो-तीन दोस्तों के संग वहां पहुंच जाते थे. बुजुर्ग अपने ग्रुप में. बच्चे अपनी मम्मी और भाई-बहन के साथ. कुछ मजदूर और सैनिक, जो वहां पहरे के लिए तैनात रहते, दिन भर की थकान मिटाते नजर आते. पूरी दुनिया एक जगह नजर आती.
बुजुर्गों की जुबान पर लेटेस्ट पॉलिटिकल डेवलपमेंट हुआ करता था. आगे-पीछे चलते हम लोग उनकी एनालिसिस चुपचाप सुनते रहते. कभी उनके प्वाइंट आफ व्यू सुनकर हम भी आपस में दोस्तों के साथ बहस करते थे. उसी लंबी सड़क पर चंद जवान अपनी मोटरसाइकिल से रफ्तार का जोश दिखाते नजर आते. यूं कहें एक अलग ही दुनिया थी. वहां से रांची के एक किनारे पर मौजूद टैगोर हिल साफ दिखता था. क्योंकि उस समय तक न तो वहां उतने मकान थे और न ही उतनी गगनचुंबी इमारतें. खेत ही खेत नजर आते थे. हमने नौकरी पकड़ ली. साप्ताहिक छुट्टी के दिन वहां जरूर चले जाते थे. उस समय के बाद के सालों में फायरिंग रेंज के अगल-बगल इक्के-दुकान मकान बनते देखकर मन विचलित हो उठता था.
मकानों के बनने की रफ्तार बढ़ने लगी. फायरिंग रेंज को अंततः आम अवाम से दूर करते हुए बंद कर दिया गया. वहां पर कंटीले तार लगाकर लोहे के गेट लगा दिए गए. वहां अब कोई आम आदमी घूमने नहीं जा सकता था. पहले की स्चच्छंदता जाती रही. शाम के समय घूमने के शौकीन अब कॉलोनी की सड़क पर ही चहलकदमी करते नजर आने लगे. हमारा भी साथ छूट गया. जो लोग पहले फायरिंग रेंज के पास पहाड़ी की ओर जाती सड़क पर मिलते थे, उनसे काफी दिनों के बाद ही मुलाकात हो पाती. कॉलोनी की सड़कों पर घूमते हुए आप उन्मुक्त आकाश और सुकून देनेवाली हरियाली को नहीं पा सकते. आज भी उस ओर से जाना होता है. वहां पर जब भी फायरिंग रेंज के लोहे के एंट्रेंस गेट को देखता हूं, तो एक टीस सी उठती है. डर लगता है. रोज शाम को गुजारी गई उस खुली जिंदगी की याद आती है, जो अब कभी नहीं आएगी.
पहाड़ी पर से पूरी रांची को देखने की अपनी ललक की याद आती है. तब हम दोस्त शाम के समय आपसी प्रतियोगिता करते हुए पहाड़ की चोटियों पर चढ़ जाते. वहां से मीलों दूर तक फैली रांची को निहारते. ऊपर पहाड़ी पर गुफाओं में चमगादड़ भी लटके मिलते और मधुमक्खियों के छत्ते भी. तब डर नहीं लगा कभी भी. मेरी कॉलोनी का कोई बंदा अब पहाड़ी पर नहीं जाता. क्योंकि लोगों ने पहाड़ी पर ही घर बना लिया है. सुनते हैं कि रांची में जमीन कम पड़ गई है. सब लोग इस उगते शहर की ओर ही आ रहे हैं. लेकिन किस जिंदगी की तलाश मे. वो जिंदगी जो अब नहीं रही. उन्हें न तो वह पुरानी हरियाली मिलेगी और न सुकून. मोरहाबादी भी अब वैसा नहीं रहा.हरे पेड़ों को बेदर्दी से काट डाला गया है. मन जार-जार रोता है. सुकून की तलाश करता है. अपने से छोटों के लिए कैसी जिंदगी हम सबने तैयार कर ली है. वैसे भी सब कुछ अपने कंट्रोल में नहीं है. जैसे कि आप कैसा कमेंट देंगे, ये मैं नहीं जानता. लेकिन उन पुरानी शामों के बारे में लिखकर मैंने कुछ सुकून के पल जरूर चुरा लिए हैं.
बुजुर्गों की जुबान पर लेटेस्ट पॉलिटिकल डेवलपमेंट हुआ करता था. आगे-पीछे चलते हम लोग उनकी एनालिसिस चुपचाप सुनते रहते. कभी उनके प्वाइंट आफ व्यू सुनकर हम भी आपस में दोस्तों के साथ बहस करते थे. उसी लंबी सड़क पर चंद जवान अपनी मोटरसाइकिल से रफ्तार का जोश दिखाते नजर आते. यूं कहें एक अलग ही दुनिया थी. वहां से रांची के एक किनारे पर मौजूद टैगोर हिल साफ दिखता था. क्योंकि उस समय तक न तो वहां उतने मकान थे और न ही उतनी गगनचुंबी इमारतें. खेत ही खेत नजर आते थे. हमने नौकरी पकड़ ली. साप्ताहिक छुट्टी के दिन वहां जरूर चले जाते थे. उस समय के बाद के सालों में फायरिंग रेंज के अगल-बगल इक्के-दुकान मकान बनते देखकर मन विचलित हो उठता था.
मकानों के बनने की रफ्तार बढ़ने लगी. फायरिंग रेंज को अंततः आम अवाम से दूर करते हुए बंद कर दिया गया. वहां पर कंटीले तार लगाकर लोहे के गेट लगा दिए गए. वहां अब कोई आम आदमी घूमने नहीं जा सकता था. पहले की स्चच्छंदता जाती रही. शाम के समय घूमने के शौकीन अब कॉलोनी की सड़क पर ही चहलकदमी करते नजर आने लगे. हमारा भी साथ छूट गया. जो लोग पहले फायरिंग रेंज के पास पहाड़ी की ओर जाती सड़क पर मिलते थे, उनसे काफी दिनों के बाद ही मुलाकात हो पाती. कॉलोनी की सड़कों पर घूमते हुए आप उन्मुक्त आकाश और सुकून देनेवाली हरियाली को नहीं पा सकते. आज भी उस ओर से जाना होता है. वहां पर जब भी फायरिंग रेंज के लोहे के एंट्रेंस गेट को देखता हूं, तो एक टीस सी उठती है. डर लगता है. रोज शाम को गुजारी गई उस खुली जिंदगी की याद आती है, जो अब कभी नहीं आएगी.
पहाड़ी पर से पूरी रांची को देखने की अपनी ललक की याद आती है. तब हम दोस्त शाम के समय आपसी प्रतियोगिता करते हुए पहाड़ की चोटियों पर चढ़ जाते. वहां से मीलों दूर तक फैली रांची को निहारते. ऊपर पहाड़ी पर गुफाओं में चमगादड़ भी लटके मिलते और मधुमक्खियों के छत्ते भी. तब डर नहीं लगा कभी भी. मेरी कॉलोनी का कोई बंदा अब पहाड़ी पर नहीं जाता. क्योंकि लोगों ने पहाड़ी पर ही घर बना लिया है. सुनते हैं कि रांची में जमीन कम पड़ गई है. सब लोग इस उगते शहर की ओर ही आ रहे हैं. लेकिन किस जिंदगी की तलाश मे. वो जिंदगी जो अब नहीं रही. उन्हें न तो वह पुरानी हरियाली मिलेगी और न सुकून. मोरहाबादी भी अब वैसा नहीं रहा.हरे पेड़ों को बेदर्दी से काट डाला गया है. मन जार-जार रोता है. सुकून की तलाश करता है. अपने से छोटों के लिए कैसी जिंदगी हम सबने तैयार कर ली है. वैसे भी सब कुछ अपने कंट्रोल में नहीं है. जैसे कि आप कैसा कमेंट देंगे, ये मैं नहीं जानता. लेकिन उन पुरानी शामों के बारे में लिखकर मैंने कुछ सुकून के पल जरूर चुरा लिए हैं.
2 comments:
इस देश का दुर्भाग्य बढती जनसंख्या है और उससे बड़ी विडम्बना यह कि नेता इसमें भी अपना भला देख रहे हैं. बढ़ती जनसंख्या सब कुछ चाट लेगी.
हरे रंग का स्थान पर कांक्रीट का रंग दिखता है दृश्यों में।
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