Thursday, August 28, 2008

आइये करें एक नयी शुरुआत

बिल जमा करने के लिए लंबी लाइन। लाइन में हैं सभी-बुजुगॆ, बच्चे और प्रौढ़। लंबा होता जा रहा है इंतजार का समय। लोगों का पेशेंस टूटता है, थोड़ी चिंता, टेंशन, थकान, झुंझलाहट सबके चेहरे पर साफ झलकती है। लंबी लाइन, भुगतान में होती देरी जैसे उनके अंदर समाये गुस्से को जुबान पर ला दे रही है। कोई सिस्टम के करप्ट होने को गाली देता है, तो कोई अपने भाग्य को। कारण, उनके लिए अव्यवस्था को झेलना बरदाश्त से बाहर की चीज होती जा रही है। तकॆ-वितकॆ का सिलसिला तेज होता जाता है।
तभी एक बुजुगॆ आते हैं। लंबी कद-काठी, ऊंचा कद और झलकता तेज। एक गंभीर दृष्टि डालते हुए वह भी हो रहे तकॆ-वितकॆ में शामिल हो जाते हैं। किसी ने कहा कि अंगरेज के समय में शायद सिस्टम ठीक था। आज खराब हो गया है। उन्होंने बात काटी- कहा बस, बहुत हुआ।
सब पर सम्यक दृष्टि डाल वे बुजुगॆ जैसे यादों में खोये हुए अपने अनुभवों का निचोड़ बताना शुरू करते हैं। वह समझाते हुए कहते हैं-सिस्टम करप्ट हो गया है, ठीक कहा, लेकिन क्या यह हमारा और आपका ही बनाया हुआ नहीं है। दूसरों पर उंगली उठाना काफी आसान है। पहले हमें अपने अंदर भी झांकने की जरूरत है कि हम खुद कितने ईमानदार हैं। देश और राज्य समाज से बनता है। समाज परिवार से और परिवार हमसे। उस इकाई के सदस्य होने के नाते हम और आप भी इस बात के लिए उतने ही दोषी हैं, जितने दूसरे।
उन्होंने बताया कि कैसे हमारे देश में सिस्टम बेहतर है। यहां की न्याय प्रणाली बेहतर है। पुलिस और एजुकेशन काफी हद तक ठीक है। आगे कहा-हमारा चिंतन भी यही कहता है। हमारा सिस्टम ठीक है, लेकिन हमने ही इसे गलत बना दिया है, गलत नजरिये से देखकर। हम क्यों दूसरों से ईमानदार होने की आशा करते हैं, खुद क्यों नहीं ईमानदार हो जाते हैं? हमारा धीरज और विवेक कहां चला गया है? हम क्यों कम समय में बिना परिश्रम के ज्यादा कमाने की सोचते हैं?
हम भी उस लाइन में खड़े होकर चुपचाप उनकी बातों को सुन रहे थे। मन ही मन हमने भी उनकी बातों को सही ठहराया, क्योंकि इन सवालों को गलत ठहराने की शक्ति हममें नहीं थी। हमने कहा-यह तो सही बात है कि अगर हम सभी सही हो जायें, हमारा व्यक्तिगत जीवन ईमानदारी पर टिका हो, तो समाज भी सुधरेगा जरूर। दूसरों को सही और गलत ठहराने से दूर होकर अपने आप को सही करने और सुधारने का सिलसिला शुरू करना होगा।
बात सही थी। वहां मौजूद दूसरे लोग भी उनसे सहमत थे। तब तक लाइन काफी आगे बढ़ चुकी थी। हमारी बारी भी आनेवाली थी। इसलिए मैं भी आगे बिल जमा करने के लिए बढ़ गया। एक नये संकल्प के साथ। आज से एक नया जीवन नये तरीके से जीने के लिए, ईमानदारी और परिश्रम के सहारे। भले ही उसमें कितना भी संघषॆ क्यों न करना पड़े।
आशा है, आप भी मेरी बातों से सहमत होंगे।

2 comments:

Dr. Amar Jyoti said...

अन्य सभी चीज़ों की तरह ईमानदारी भी कोई जड़ परम सत्य न होकर व्यक्ति और वर्ग-सापेक्ष होती
है। अदम गोंडवी के शब्दों में:-
'चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें
चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को?'

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सहमत हूँ आपसे.

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